अल्लाह ने मर्द में औरत की तरफ और औरत में मर्द की तरफ रग़बत ख्वाहिश और दिलचस्पी पैदा की,दोनों में एक दूसरे की ज़रूरत और चाहत रखी और दोनों की ज़िन्दगी बग़ैर एक दूसरे के अधूरी और ना मुकम्मल है,मगर जिंसी ख्वाहिशात को पूरा करने के लिए इंसान को जानवरों की तरह आज़ाद नहीं छोड़ा गया कि जिसके साथ चाहे अपनी ज़रूरत पूरी कर ली बल्कि शरीयते इस्लामिया ने जो दायरा बनाया उसको निकाह कहते हैं,निकाह नाम है इजाबो क़ुबूल का कि दो गवाहों के सामने एक ने कह दिया कि मैंने तुमको अपने निकाह में लिया दूसरे ने कहा कि मैंने क़ुबूल किया निकाह मुनक़्क़िद हो गया,निकाह सिर्फ इसी का नाम है मगर दुनिया ने इसको कहां से कहां पहुंचा दिया,सालों पहले से ऐसी तैयारियां शुरू होती है, मानो एक दूसरे को बर्बाद करने की मुहिम छिड़ी हो,लड़की पैदा हुई, उसकी शादी होना है 20 साल बाद, मगर घर वाले अभी से ही घुले जा रहे हैं अभी से ही उसके नाम से f.d कर दी गई है,अल्लाह की दी हुई नेमत को मुसलमानों ने अपने ऊपर अज़ाब बना डाला,हुज़ूर सल्लललाहो तआला अलैहि वसल्लम इरशाद फरमाते हैं कि_*
सबसे ज़्यादा बरकत वाला निकाह वो है जिसमे खर्च कम हो_*
*📕 मिश्कात,जिल्द 2,सफह 268*
इस्लामी हिस्ट्री उठाकर देखिये कि क्या नबी भी किसी के घर 300 बाराती लेकर गए थे क्या किसी सहाबी की बारात में 200 लोग थे या किसी ताबईन की बारात में 100 लोग ही गए हों और फिर उनको नाश्ता कराया गया हो फिर खाना खिलाया गया हो तब कहीं निकाह हुआ हो ऐसी कोई एक भी रिवायत दिखाई जाए,और बस यही नहीं बल्कि उस पर से जहेज़ का हाल ये कि खुद के घर में चाहे खाने के लाले पड़े हों मगर फ्रिज वाशिंग मशीन एयर कंडीशन और बाइक तो चाहिए ही चाहिए,जहेज़ लेने वाले कहते हैं कि जहेज़ देना सुन्नत है तो याद रखें कि हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने जो जहेज़ अपनी बेटी को दिया उससे आज के इस जहेज़ की कोई मुनासिबत ही नहीं ,वो ज़रूरत के सामन थे और आज ऐशो आराम और रुपयों की नुमाईश के सिवा कुछ नहीं,कुल मिलाकर बस ये समझ लीजिए कि भिखारी अपना स्टैंडर्ड बदल कर बारात लेकर पहुंच रहा है और देने वाला अपने रुपयों की नुमाइश कर रहा है,ना दीन का कुछ ख्याल रहा और ना शरीयत का कुछ लिहाज़ फिर भी हम मुसलमान हैं,और कुछ घरों का हाल तो ये हो गया है कि लड़कियां अगर चे घर में बैठी बैठी बूढी हो जाएं खुद घरवाले मगर रिश्ता करने में इतनी नुक्ता चीनी करते हैं कि अल्लाह की पनाह,हदीसे पाक में आता है कि_*
*जब ऐसे शख्स का पैग़ाम आये जिसका दीन और अखलाक़ अच्छा हो तो उससे निकाह कर दो वरना ज़मीन पर फितनये अज़ीम पैदा होगा_*
*📕 तिर्मिज़ी,जिल्द 1,सफह 128*
_हम हैं तो मुसलमान मगर सिर्फ नाम के अगर अमल के मुसलमान होते तो क्या ऐसा करते मुलाहज़ा फरमाएं_*
बेहतरीन महर वो है जिसे अदा करना इंतिहाई आसान हो_*
📕 अबु दाऊद,जिल्द 2,हदीस 2117)
मगर हमारे यहां महर महर नहीं बोझ होता है*
शादी में आतिश बाज़ी करना हराम है_*
📕 रद्दे बिदआत व मुंकिरात,सफह 326*
अगर किसी के यहां आतिश बाज़ी ही ना हुई तो मानो मय्यत की तरह सूना सूना रह गया*
ग़ैर महरम की तरफ देखना मर्दो औरत दोनों को हराम है_*
📕 रद्दुल मुख्तार,जिल्द 5,सफह 258*
मगर हमारे यहां जब तक रतजगा सलाम कराई और जूता चुराई ना हो तब तक शादी कहां मानी जाती है*
*_बाजे ताशे हराम हैं_*
📕बुखारी,जिल्द 2 ,सफह 837*
मगर हम तो डी.जे बजायेंगे और अपने घर की औरतों से मुजरा भी करवायेंगे*
मर्द को मेंहदी लगाना हराम है_*
📕फतावा रज़वियह,जिल्द 9,सफह 412*
मेंहदी क्या चीज़ है अजी हम तो कंगन भी पहनाते हैं और दूल्हे को दुपट्टा भी उढ़ाते हैं*
सोने की अंगूठी मर्द को पहनना नाजायज़ है और चांदी की भी सिर्फ एक वो भी 4.3 ग्राम से कम की_—-(अहकामे शरीयत,हिस्सा 2,सफह 170)
मगर हम तो इसका उल्टा ही करेंगे
मस्जिद में औरतों का नमाज़ पढ़ने के लिए जाना मना है_*——–(📕 मुस्लिम,जिल्द 1,सफह 183*)
मगर हमारे घर की औरतें मस्जिदों में गुलगुला रखने जाती हैं*
हां रस्मो में कुछ जायज़ भी हैं जैसे दूल्हा दुल्हन को उबटन लगाना अगर ना महरम ना हों और सतरपोशी का ख्याल रखा जाए तो जायज़,युंही डाल की रसम की कुछ कपड़े वग़ैरह भेजे जाते हैं जायज़,दूल्हे का सिर्फ फूलों का सेहरा पहना जायज़_*
क्या क्या कहूं,ये बहस इतनी लंबी चौड़ी है कि दो चार सतरों में बात खत्म ही नहीं हो सकती,बस इतना समझ लीजिए कि ये बीमारी कोढ़ की तरह हमारे मुआशरे को तबाहो बर्बाद कर रही है,फिर मुसलमान कहता है कि हम बहुत परेशान हैं रोज़ी की किल्लत है बच्चे बा
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