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सूरए बक़रह _ दूसरा रूकू
और कुछ लोग कहते हैं(1)कि हम अल्लाह और पिछले दीन पर ईमान लाए और वो ईमान वाले नहीं धोखा देना चाहते हैं अल्लाह और ईमान वालों को(2)और हक़ीक़त में धोखा नहीं देते मगर अपनी जानों को और उन्हें शउर (या आभास)नहीं उनके दिलों में बीमारी है (3)तो अल्लाह ने उनकी बीमारी और बढ़ाई और उनके लिये दर्दनाक अज़ाब है बदला उनके झूठ का(4)और जो उनसे कहा जाए ज़मीन में फ़साद न करो (5)
तो कहते हैं हम तो संवारने वाले हैं, सुनता है। वही फ़सादी हैं मगर उन्हें शउर नहीं,और जब उनसे कहा जाए ईमान लाऔ जैसे और लोग ईमान लाए हैं(6)तो कहें क्या हम मूर्खों की तरह ईमान लाएं(7)सुनता है । वही मूर्ख हैं मगर जानते नहीं (8)और जब ईमान वालों से मिलें तो कहें हम ईमान लाए और जब अपने शैतानों के पास अकेले हों(9)तो कहें हम तुम्हारे साथ हैं, हम तो यूं ही हंसी करते हैं (10)अल्लाह उनसे इस्तहज़ा फ़रमाता है (अपनी शान के मुताबिक़)(11)और उन्हें ढील देता है कि अपनी सरकशी में भटकते रहें. ये वो लोग हैं जिन्होंने हिदायत के बदले गुमराही ख़रीदी(12)तो उनका सौदा कुछ नफ़ा न लाया और वो सौदे की राह जानते ही न थे(13)उनकी कहावत उसकी तरह है जिसने आग रौशन की तो जब उससे आसपास सब जगमगा उठा, अल्लाह उनका नूर ले गया और उन्हें अंधेरियों में छोड़ दिया कि कुछ नहीं सूझता (14)बहरे, गूंगे, अन्धे, तो वो फिर आने वाले नहीं या जैसे आसमान से उतरता पानी कि उसमें अंधेरियां हैं और गरज और चमक(15)
अपने कानों में उंगलियां ठूंस रहे हैं,कड़क के कारण मौत के डर से(16)और अल्लाह काफ़िरों को घेरे हुए है(17)बिजली यूं ही मालूम होती है कि उनकी निगाहें उचक ले जाएगी(18)जब कुछ चमक हुई उस में चलने लगे(19)और जब अंधेरा हुआ, खड़े रह गए और अल्लाह चाहता तो उनके कान और आंखें ले जाता(20)बेशक अल्लाह सबकुछ कर सकता हैं(21)
तफ़सीर : सूरए बक़रह _ दूसरा रूकू
1. इससे मालूम हुआ कि हिदायत की राहें उनके लिए पहले ही बन्द न थीं कि बहाने की गुंजायश होती. बल्कि उनके कुफ़्र, दुश्मनी और सरकशी व बेदीनी, सत्य के विरोध और नबियों से दुश्मनी का यह अंजाम है जैसे कोई आदमी डाक्टर का विरोध करें और उसके लिये दवा से फ़ायदे की सूरत न रहे तो
वह ख़ुद ही अपनी दुर्दशा का ज़िम्मेदार ठहरेगा.2. यहां से तैरह आयतें मुनाफ़िक़ों (दोग़ली प्रवृत्ति वालों) के लिये उतरीं जो अन्दर से काफिर थे और अपने आप को मुसलमान ज़ाहिर करते थे. अल्लाह तआला ने फ़रमाया “माहुम बिमूमिनीन” वो ईमान वाले नहीं यानी कलिमा पढ़ना, इस्लाम का दावा करना, नमाज़ रोज़े अदा करना मूमिन होने के लिये काफ़ी नहीं, जब तक दिलों में तस्दीक़ न हो. इससे मालूम हुआ कि जितने फ़िरक़े (समुदाय) ईमान का दावा करते हैं और कुफ़्र का अक़ीदा रखते हैं सब का यही हुक्म है कि काफ़िर इस्लाम से बाहर हैं.शरीअत में एसों को मुनाफ़िक़ कहते हैं. उनका नुक़सान खुले काफ़िरों से ज्य़ादा है. मिनन नास (कुछ लोग) फ़रमाने में यह इशारा है कि यह गिरोह बेहतर गुणों और इन्सानी कमाल से एसा ख़ाली है कि इसका ज़िक्र किसी वस्फ़ (प्रशंसा) और ख़ूबी के साथ नहीं किया जाता, यूं कहा जाता है कि वो भी आदमी हैं. इस से मालूम हुआ कि किसी को बशर कहने में उसके फ़जा़इल और कमालात (विशेष गुणों) के इन्कार का पहलू निकलता है. इसलिये कुरआन में जगह जगह नबियों को बशर कहने वालों को काफ़िर कहा गया और वास्तव में नबियों की शान में एसा शब्द अदब से दूर और काफ़िरों का तरीक़ा है. कुछ तफसीर करने वालों ने फरमाया कि मिनन नास (कुछ लोगों) में सुनने वालों को आश्चर्य दिलाने के लिये फ़रमाया धोख़ेबाज़, मक्कार और एसे महामूर्ख भी आदमियों में हैं. 3. अल्लाह तआला इससे पाक है कि उसको कोई धोख़ा दे सके. वह छुपे रहस्यों का जानने वाला है. मतलब यह कि मुनाफ़िक़ अपने गुमान में ख़ुदा को धोख़ा देना चाहते हैं या यह कि ख़ुदा को धोख़ा देना यही है कि रसूल अलैहिस्सलाम को धोख़ा देना चाहें क्योंकि वह उसके ख़लीफ़ा हैं, और अल्लाह तआला ने अपने हबीब को रहस्यों (छुपी बातों) का इल्म दिया है, वह उन दोग़लों यानि मुनाफ़िक़ों के छुपे कुफ़्र के जानकार हैं और मुसलमान उनके बताए से बाख़बर, तो उन अधर्मियों का धोख़ा न ख़ुदा पर चले न रसूल पर, न ईमान वालों पर, बल्कि हक़ीक़त में वो अपनी जानों को धोख़ा दे रह हैं. इस आयत से मालूम हुआ कि तक़ैय्या (दिलों में कुछ और ज़ाहिर कुछ) बड़ा एब है. जिस धर्म की बुनियाद तक़ैय्या पर हो, वो झूठा है. तक़ैय्या वाले का हाल भरोसे के क़ाबिल नहीं होता, तौबह इत्मीनान के क़ाबिल नहीं होती, इसलिये पढ़े लिखों ने फ़रमाया है “ला तुक़बलो तौबतुज़ ज़िन्दीक़ यानी अधर्मी की तौबह क़बुल किये जाने के क़ाबिल नहीं. 4. बुरे अक़ीदे को दिल की बीमारी बताया गया है. मालूम हुआ कि बुरा अक़ीदा रूहानी ज़िन्दग़ी के लिये हानिकारक है. इस आयत से साबित हुआ कि झूठ हराम है, उसपर भारी अजाब दिया जाता है. 5. काफ़िरों से मेल जोल, उनकी ख़ातिर दीन में कतर ब्यौंत और असत्य पर चलने वालों की ख़ुशामद और चापलूसी और उनकी ख़ुशी के लिये सुलह कुल्ली (यानी सब चलता है) बन जाना और सच्चाई से दूर रहना, मुनाफ़िक़ की पहचान और हराम है. इसी को मुनाफ़िकों का फ़साद फ़रमाया है कि जिस जल्से में गए, वैसे ही हो गए, इस्लाम में इससे मना फ़रमाया गया है. ज़ाहिर और बातिन (बाहर और अन्दर) का एकसा न होना बहुत बड़ी बुराई है. 6. यहां “अन्नासो”से या सहाबए किराम मुराद है या ईमान वाले, क्योंकि ख़ुदा के पहचानने, उसकी फ़रमाबरदारी और आगे की चिन्ता रखने की बदौलत वही इन्सान कहलाने के हक़दार हैं. “आमिनु कमा आमना” (ईमान लाओ जैसे और लोग ईमान लाए) से साबित हुआ कि अच्छे लोगों का इत्तिबाअ
(अनुकरण) अच्छा और पसन्दीदा है. यह भी साबित हुआ कि एहले सुन्नत का मज़हब सच्चा है क्योंकि इसमें अच्छे नेक लोगों का अनुकरण है. बाक़ी सारे समुदाय अच्छे लोगों से मुंह फेरे हैं इसलिये गुमराह हैं. कुछ विद्वानों ने इस आयत को जि़न्दीक़ (अधर्मी) की तौबह क़ुबूल होने की दलील क़रार दिया है. (बैज़ावी) ज़िन्दीक़ वह है जो नबुवत को माने, इस्लामी उसूलों को ज़ाहिर करे मगर दिल ही दिल में ऐसे अक़ीदे रखे जो आम राय में कुफ़्र हों, यह भी मुनाफ़िकों में दाखि़ल हैं.7. इससे मालूम हुआ कि अच्छे नेक आदमियों को बुरा कहना अधर्मियों और असत्य को मानने वालों का पुराना तरीक़ा है. आजकल के बातिल फ़िर्के भी पिछले बुज़ुर्गों को बुरा कहते हैं. राफ़ज़ी समुदाय वाले ख़ुलफ़ाए राशिदीन और बहुत से सहाबा को, ख़ारिजी समुदाय वाले हज़रत अली और उनके साथियों को, ग़ैर मुक़ल्लिद अइम्मए मुज्तहिदीन (चार इमामों) विशेषकर इमामे अअज़म अबू हनीफ़ा को, वहाबी समुदाय के लोग अक्सर औलिया और अल्लाह के प्यारों को, मिर्जाई समुदाय के लोग पहले नबियों तक को, चकड़ालवी समुदाय के लोग सहाबा और मुहद्दिसीन को, नेचरी तमाम बुज़ुर्गाने दीन को बुरा कहते है और उनकी शान में गुस्ताख़ी करते हैं. इस आयत से मालूम हुआ कि ये सब सच्ची सीधी राह से हटे हुए हैं. इसमें दीनदार आलिमों के लिये तसल्ली है कि वो गुमराहों की बदज़बानियों से बहुत दुखी न हों, समझ लें कि ये अधर्मियों का पुराना तरीक़ा है. (मदारिक) 8. मुनाफ़िक़ो की ये बद _ ज़बानी मुसलमानों के सामने न थी. उनसे तो वो यही कहते थे कि हम सच्चे दिल से ईमान लाए है जैसा कि अगली आयत में है “इज़ा लक़ुल्लज़ीना आमनू क़ालू आमन्ना”(और जब इमान वालों से मिलें तो कहें हम ईमान लाए).ये तबर्राबाज़ियां (बुरा भला कहना) अपनी ख़ास मज्लिसों में करते थे. अल्लाह तआला ने उनका पर्दा खोल दिया. (ख़ाजिन) उसी तरह आजकल के गुमराह फ़िर्कें (समुदाय) मुसलमानों से अपने झूटे ख्यालों को छुपाते हैं मगर अल्लाह तआला उनकी किताबों और उनकी लिखाईयों से उनके राज़ खोल देता है. इस आयत से मुसलमानों को ख़बरदार किया जाता है कि अधर्मियों की धोख़े बाज़ियों से होशियार रहें, उनके जाल में न आएं.9. यहां शैतानों से काफ़िरों के वो सरदार मुराद है जो अग़वा (बहकावे) में मसरूफ़ रहते हैं. (ख़ाज़िन और बैज़ावी) ये मुनाफ़िक़ जब उनसे मिलते है तो कहते है हम तुम्हारे साथ हैं और मुसलमानों से मिलना सिर्फ़ धोख़ा और मज़ाक उड़ाने की ग़रज़ से इसलिये है कि उनके राज़ मालूम हों और उनमें फ़साद फैलाने के अवसर मिलें. (ख़ाजिन)10.यानी ईमान का ज़ाहिर करना यानी मज़ाक उड़ाने के लिये किया, यह इस्लाम का इन्कार हुआ. नबियों और दीन के साथ मज़ाक करना और उनकी खिल्ली उड़ाना कुफ़्र है. यह आयत अब्दुल्लाह बिन उबई इत्यादि मुनाफ़िक़ के बारे़ में उतरी. एक रोज़ उन्होंने सहाबए किराम की एक जमाअत को आते देखा तो इब्ने उबई ने अपने यारों से कहा _ देखों तो मैं इन्हें कैसा बनाता हूं. जब वो हज़रात क़रीब पहुंचे तो इब्ने उबई ने पहले हज़रत सिद्दीके अकबर का हाथ अपने हाथ में लेकर आपकी तअरीफ़ की फिर इसी तरह हज़रत उमर और हज़रत अली की तअरीफ़ की. हज़रत अली मुर्तज़ा ने फ़रमाया _ ए इब्ने उबई, ख़ुदा से डर, दोग़लेपन से दूर रह, क्योंकि मुनाफ़िक़ लोग बदतरीन लोग हैं. इसपर वह कहने लगा कि ये बातें दोग़लेपन से नहीं की गई. खु़दा की क़सम, हम आपकी तरह सच्चे ईमान वाले हैं. जब ये हज़रात तशरीफ़ ले गए तो आप अपने यारों में अपनी चालबाज़ी पर फ़ख्र करने लगा. इसपर यह आयत उतरी कि मुनाफ़िक़ लोग ईमान वालों से मिलते वक्त ईमान और महब्बत जा़हिर करते हैं और उनसे अलग होकर अपनी ख़ास बैठकों में उनकी हंसी उड़ाते और खिल्ली करते हैं. इससे मालूम हुआ कि सहाबए किराम और दीन के पेशवाओ की खिल्ली उड़ाना कुफ़्र हैं.11. अल्लाह तआला इस्तहज़ा (हंसी करने और खिल्ली उड़ाने) और तमाम ऐबों और बुराइयों से पाक है. यहां हंसी करने के जवाब को इस्तहज़ा फ़रमाया गया ताकि ख़ूब दिल में बैठ जाए कि यह सज़ा उस न करने वाले काम की है. ऐसे मौके़ पर हंसी करने के जवाब को अस्ल क्रिया की तरह बयान करना फ़साहत का क़ानून है. जैसे बुराई का बदला बुराई. यानी जो बुराई करेगा उसे उसका बदला बुराई की सूरत में मिलेगा.12. हिदायत के बदले गुमराही ख़रीदना यानी ईमान की जगह कुफ़्र अपनाना बहुत नुक़सान औरघाटे की बात है. यह आयत या उन लोगों के बारे में उतरी जो ईमान लाने के बाद काफ़िर हो गए, या यहूदियों के बारे में जो पहले से तो हुज़ूर सल्लल्लाहो तआला अलैहे वसल्लम पर ईमान रखते थे मगर जब हुज़ूर तशरीफ़ ले आए तो इन्कार कर बैठे, या तमाम काफ़िरों के बारे में कि अल्लाह तआला ने उन्हें समझने वाली अक़्ल दी, सच्चाई के प्रमाण ज़ाहिर फ़रमाए, हिदायत की राहें खोलीं, मगर उन्होंने अक़्ल और इन्साफ़ से काम न लिया और गुमराही इख्तियार की. इस आयत से साबित हुआ कि ख़रीदों फ़रोख्त (क्रय विक्रय) के शब्द कहे बिना सिर्फ़ रज़ामन्दी से एक चीज़ के बदले दूसरी चीज़ लेना जायज़ है.13. क्योंकि अगर तिजारत का तरीक़ा जानते तो मूल पूंजी (हिदायत) न खो बैठते.14. यह उनकी मिसाल है जिन्हें अल्लाह तआला ने कुछ हिदायत दी या उसपर क़ुदरत बख्शी,फिर उन्होंने उसको ज़ाया कर दिया और हमेशा बाक़ी रहने वाली दौलत को हासिल न किया. उनका अंजाम हसरत, अफसोस, हैरत और ख़ौफ़ है. इसमें वो मुनाफ़िक़ भी दाखि़ल हैं जिन्होंने ईमान की नुमाइश की और दिल में कुफ़्र रखकर इक़रार की रौशनी को ज़ाया कर दिया, और वो भी जो ईमान लाने के बाद दीन से निकल गए, और वो भी जिन्हें समझ दी गई और दलीलों की रौशनी ने सच्चाई को साफ़ कर दिया मगर उन्होंने उससे फ़ायदा न उठाया और गुमराही अपनाई और जब हक़ सुनने, मानने, कहने और सच्चाई की राह देखने से मेहरूम हुए तो कान, ज़बान, आंख, सब बेकार हैं.15. हिदायत के बदले गुमराही ख़रीदने वालों की यह दूसरी मिसाल है कि जैसे बारिश ज़मीन की ज़िन्दग़ी का कारण होती है और उसके साथ खौफ़नाक अंधेरियां और ज़ोरदार गरज और चमक होती है, उसी तरह क़ुरआन और इस्लाम दिलों की ज़िन्दग़ी का सबब हैं और कुफ़्र, शिर्क, निफ़ाक़ दोगलेपन का बयान तारीकी (अंधेरे) से मिलता जुलता है. जैसे अंधेरा राहगीर को मंज़िल तक पहुंचने से रोकता है, एैसे ही कुफ़्र और निफ़ाक़ राह पाने से रोकते हैं.और सज़ाओ का ज़िक्र गरज से और हुज्जतों का वर्णन चमक से मिलते जुलते हैं.मुनाफ़िक़ों में से दो आदमी हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के पास से मुश्रिकों की तरफ भागे, राह में यही बारिश आई जिसका आयत में ज़िक्र है. इसमें ज़ोरदार गरज, कड़क और चमक थी. जब गरज होती तो कानों में उंगलियां ठूंस लेते कि यह कानों को फाड़ कर मार न डाले, जब चमक होती चलने लगते, जब अंधेरी होती, अंधे रह जाते, आपस में कहने लगे _ ख़ुदा ख़ैर से सुबह करे तो हुज़ूर की ख़िदमत में हाज़िर होकर अपने हाथ हुज़ूर के मुबारक हाथों में दे दें. फिर उन्होंने एेसा ही किया और इस्लाम पर साबित क़दम रहे. उनके हाल को अल्लाह तआला ने मुनाफ़िक़ों के लिये कहावत बनाया जो हुज़ूर की पाक मज्लिस में हाज़िर होते तो कानों में उंगलियां ठूंस लेते कि कहीं हुज़ूर का कलाम उनपर असर न कर जाए जिससे मर ही जाएं और जब उनके माल व औलाद ज्यादा होते और फ़तह और ग़नीमत का माल मिलता तो बिजली की चमक वालों की तरह चलते और कहते कि अब तो मुहम्मद का दीन ही सच्चा है. और जब माल और औलाद का नुक़सान होता और बला आती तो बारिश की अंधेरियों में ठिठक रहने वालों की तरह कहते कि यह मुसीबतें इसी दीन की वजह से हैं और इस्लाम से हट जाते.16. जैसे अंधेरी रात में काली घटा और बिजली की गरज _ चमक जंगल में मुसाफिरों को हैरान करती हो और वह कड़क की भयानक आवाज़ से मौत के डर से माने कानों में उंगलियां ठूंसते हों. ऐसे ही काफ़िर क़ुरआन पाक के सुनने से कान बन्द करते हैं और उन्हें ये अन्देशा या डर होता है कि कहीं इसकी दिल में घर कर जाने वाली बातें इस्लाम और ईमान की तरफ़ खींच कर बाप दादा का कुफ़्र वाला दीन न छुड़वा दें जो उनके नज्दीक मौत के बराबर है.17. इसलियें ये बचना उन्हें कुछ फ़ायदा नहीं दे सकता क्योंकि वो कानों में उंगलियां ठूंस कर अल्लाह के प्रकोप से छुटकारा नहीं पा सकते.18. जैसे बिजली की चमक, मालूम होता है कि दृष्टि को नष्ट कर देगी, ऐसे ही खुली साफ़ दलीलों की रोशनी उनकी आंखों और देखने की क़ुव्वत को चौंधिया देती है.19. जिस तरह अंधेरी रात और बादल और बािरश की तारीकियों में मुसाफिर आश्चर्यचकित होता है, जब बिजली चमकती है तो कुछ चल लेता है, जब अंधेरा होता है तो खड़ा रह जाता है, उसी तरह इस्लाम के ग़लबे और मोजिज़ात की रोशनी और आराम के वक्त़ मुनाफ़िक़ इस्लाम की तरफ़ राग़िब होते (खिंचते) हैं और जब कोई मशक्कत पेश आती है तो कुफ़्र की तारीक़ी में खड़े रह जाते हैं और इस्लाम से हटने लगते हैं. इसी मज़मून (विषय) को दूसरी आयत में इस तरह इरशाद फ़रमाया “इज़ा दुउ इलल्लाहे व रसूलिही लियहकुमा बैनहुम इज़ा फ़रीक़ुम मिन्हुम मुअरिदुन.”(सूरए नूर, आयत 48) यानी जब बुलाए जाएं अल्लाह व रसूल की तरफ़ कि रसूल उनमें फ़रमाए तो जभी उनका एक पक्ष मुंह फेर जाता है. (ख़ाज़िन वग़ैरह)
20. यानी यद्दपि मुनाफ़िक़ों की हरकतें इसी की हक़दार थीं, मगर अल्लाह तआला ने उनके सुनने और देखने की ताक़त को नष्ट न किया. इससे मालूम हुआ कि असबाब की तासीर अल्लाह की मर्ज़ी के साथ जुड़ी हुई है कि अल्लाह की मर्ज़ी के बिना किसी चीज़ का कुछ असर नहीं हो सकता. यह भी मालूम हुआ कि अल्लाह की मर्ज़ी असबाब की मोहताज़ नहीं, अल्लाह को कुछ करने के लिये किसी वजह की ज़रूरत नहीं.21. “शै” उसी को कहते है जिसे अल्लाह चाहे और जो उसकी मर्ज़ी के तहत आ सके. जो कुछ भी है सब “शै” में दाख़िल हैं इसलिये वह अल्लाह की क़ुदरत के तहत है. और जो मुमकिन नहीं यानी उस जैसा दूसरा होना सम्भव नहीं अर्थात वाजिब, उससे क़ुदरत और इरादा सम्बन्धित नहीं होता जैसे अल्लाह तआला की ज़ात और सिफ़ात वाजिब है, इस लिये मक़दूर (किस्मत) नहीं. अल्लाह तआला के लिये झूट बोलना और सारे ऐब मुहाल (असंभव) है इसीलिये क़ुदरत को उनसे कोई वास्ता नहीं.

As-salam-o-alaikum my selfshaheel Khan from india , Kolkatamiss Aafreen invite me to write in islamic blog i am very thankful to her. i am try to my best share with you about islam.
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