हज़रत उम्मे ऐमन जो आप नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की रज़ाई (दूध पिलाने के रिश्ते से) माँ भी हैं, आपको लेकर मक्का वापस आईं और हज़रत आमना के इन्तिक़ाल की ख़बर देकर आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को आपके दादा हज़रत अब्दुल-मुत्तलिब के सुपुर्द किया…।
अब्दुल-मुत्तलिब आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को हमेशा अपने साथ रखते…। अब्दुल-मुत्तलिब जब ख़ाना काबा में जाते तो उनके लिये एक ख़ास फ़र्श ख़ाना काबा के साये में बिछाया जाता, किसी की मजाल न थी कि उस फ़र्श पर कोई बैठ सके, यहाँ तक कि अब्दुल-मुत्तलिब की औलाद भी उस फ़र्श से अलग किनारे पर बैठती, मगर जब आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम आते तो बिना किसी संकोच के उस फ़र्श (मस्नद) पर बैठ जाते…।
आपके चचा आपको उस फ़र्श से हटाना चाहते तो अब्दुल-मुत्तलिब बहुत प्यार से यह फ़रमाते कि मेरे इस बेटे को मेरी मस्नद से न हटाओ, ख़ुदा की क़सम इसकी शान ही कुछ नई होगी…। फिर आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को अपने पास बैठा लेते और आपको देख-देखकर बहुत ख़ुश होते…।
मुस्तद्रक हाकिम में कन्दीर इब्ने सईद रिवायत करते हैं कि मैं इस्लाम से पहले (यानी हुज़ूर पुरनूर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के बचपन में) हज करने के लिये मक्का आया, देखा कि एक आदमी तवाफ़ कर (काबा शरीफ़ के चक्कर लगा) रहा है और यह शै’र पढ़ रहा है कि ऐ अल्लाह! मेरे सवार मुहम्मद को वापस भेज दे और मुझ पर अपना अज़ीम (बड़ा) एहसान फ़रमा…।
मैंने लोगों से पूछा के यह आदमी कौन है…? लोगों ने कहा यह मक्का के सरदार (मुखिया) अब्दुल-मुत्तलिब हैं…। अपने पोते मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को ऊँट की तलाश में भेजा है जो गुम हो गया है…। क्योंकि उनको जिस काम के लिये भेजते हैं उसमें कामयाबी ज़रूर होती है…। आपको गये हुए देर हो गई इसलिए हज़रत अब्दुल-मुत्तलिब बेचैन होकर यह शै’र पढ़ रहे हैं…।
कुछ देर के बाद आप ऊँट को लेकर वापस आ गये…। देखते ही अब्दुल-मुत्तलिब ने आपको गले से लगा लिया और यह कहा कि बेटा! मैं तुम्हारी वजह से बहुत परेशान था, अब तुमको कभी अपने से जुदा न होने दूँगा…।
(आख़िरी नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम, पेज 87-88)
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