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आप क़ुरान करीम को शुरू से आख़िर तक देखते जायें कदम कदम पर आपको ग़ौर व फिक्र(विचार) की दावत मिलेगी, वो अपने हर दावे को दलील और बुरहान(प्रमाण) के साथ पेश करता और उसे फिक्र और तदब्बुर के बाद मानने की ताकीद करता है, उसने ग़ौर व फिक्र पर किस क़दर ज़ोर दिया है इसका अन्दाज़ा इससे लगायें कि वो नबी सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम कि ज़बान से कहलवाता है :

قُل إِنَّما أَعِظُكُم بِوٰحِدَةٍ ٍ
कहो, “मैं तुम्हें बस एक बात की नसीहत करता हूँ (34:46)

ग़ौर कीजीये कि इतना जलीलउल क़द्र रसूल कहता है कि मैं सिर्फ एक बात कहना चाहता हूं, इसी से अन्दाज़ा होता है कि वो बात जो कही जयेगी कीतनी अहम होगी, इसके बाद कहता है कि ये बात एसी नही कि तुम यूंही चलते चलते सुन लो :

ۖ أَن تَقوموا لِلَّهِ مَثنىٰ وَفُرٰدىٍٰ
कि अल्लाह के लिए दो-दो औऱ एक-एक करके खङे हो जाओ,
(34 : 46)

यानी इसके लिये ज़रूरी है कि जिस सैलाब में तुम बहे जा रहे हो उसमे बहे न जाओ, खङे हो जाओ, पहली बात जिसकी ताकीद की जाती है ये है कि यूं ही अन्धा धुन्द न चले जाओ,
बल्कि रुको, थमो, ठहरो, खङे हो जाओ, सब के सब नही तो एक एक – दो दो करके खड़े हो जाओ, लेकिन खालिस अल्लाह के लिये दिल मे कोई और खयाल या मक़सद लिये हुए नही,
और फिर कहा :

ثُمَّ تَتَفَكَّروا ٍ
फिर सोचो ( विचार करो) ।

बस ये है वो बात जिसकी मै ताकीद करना चाहता हूं ।
फिर इसके बाद है :

ما بِصاحِبِكُم مِن جِنَّةٍ ۚ إِن هُوَ إِلّا نَذيرٌ لَكُم بَينَ يَدَى عَذابٍ شَديدٍ
तुम्हारे साथी को कोई जुनून(craze) नहीं है। वह तो एक कठोर यातना से पहले तुम्हें सचेत करनेवाला ही है।”
(34:46)

क़ुरान करीम ने जो ग़ौर फिक्र का हुकम दिया था, वो किसी खास ज़माने के लोगो तक सीमित नही था,
वो तमाम ज़मानो के इन्सानो के लिये समान(same) था ।
इसलिये जिस तरह हमसे पहले गुज़रे हुये लोग गौर व फिक्र के लिये मुकल्लिफ थे इसी तरह हम पर भी गौर व फिक्र लाज़िम है ।

याद रखिये जो क़ौम ग़ौर व फिक्र से महरूम रह जाती है वो इन्सानी सतह से नीचे गिर जाती है, इन्सान व हैवान मे फर्क ही ये है कि इन्सान को गौर व फिक्र की सलाहियत( क्षमता) दी गई है और हैवान इससे महरूम है ।

और क़ुरान चुंकि क़यामत तक के लिये है इसलिये इस पर मुसलसल ग़ौर व फिक्र होता रहना ज़रूरी है ।

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