सूरए अनआम – तीसरा रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला
और उससे बढ़कर ज़ालिम कौन जो अल्लाह पर झूठ बांधे (1) या उसकी आयतें झुटलाए बेशक ज़ालिम फ़लाह न पाएंगे {21} और जिस दिन हम सब को उठाएंगे फिर मुश्रिकों से फ़रमाएंगे कहां हैं तुम्हारे वो शरीक जिन का तुम दावा करते थे {22} फिर उनकी कुछ बनावट न रही (2) मगर यह कि बोले हमें अपने रब अल्लाह की क़सम कि हम मुश्रिक न थे {23} देखो कैसा झूठ बांधा ख़ुद अपने ऊपर (3) और गुम गई उन से जो बातें बनाते थे {24} और उनमें कोई वह है जो तुम्हारी तरफ़ कान लगाता है (4) और हमने इनके दिलों पर ग़लाफ़ कर दिये हैं कि उसे न समझें और उनके कान में टैंट (रूई) और अगर सारी निशानियां देखें तो उनपर ईमान न लांएगे यहां तक कि जब तुम्हारे हुज़ूर तुमसे झगड़ते हाज़िर हों तो काफ़िर कहें ये तो नहीं मगर अगलों की दास्तानें (5){25}
और वो इससे रोकते (6) और इससे दूर भागते हैं और हलाक नहीं करते मगर अपनी जानें (7) और उन्हें शऊर (आभास) नहीं {26} और कभी तुम देखो जब वो आग पर खड़े किये जाएंगे तो कहेंगे काश किसी तरह हम वापस भेजे जाएं (8) और अपने रब की आयतें न झुटलाएं और मुसलमान हो जाएं {27} बल्कि उनपर खुल गया जो पहले छुपाते थे (9) और अगर वापस भेजे जाएं तो फिर वही करें जिससे मना किये गए थे और बेशक वो ज़रूर झूठे हैं {28} और बोले (10) वह तो यही हमारी दुनिया की ज़िन्दगी है और हमें उठना नहीं (11) {29}
और कभी तुम देखो जब अपने रब के हुज़ूर खड़े किये जाएंगे फ़रमाएगा क्या यह हक़ (सत्य) नहीं (12) कहेंगे क्यों नहीं हमें अपने रब की क़सम, फ़रमाएगा तो अब अज़ाब चखो बदला अपने कुफ़्र का {30}
तफ़सीर सूरए अनआम – तीसरा रूकू
(1) उसका शरीक ठहराए या जो बात उसकी शान के लायक़ न हो, उसकी तरफ़ जोड़े. (2) यानी कुछ माज़िरत न मिली, कोई बहाना न पा सके. (3) कि उम्र भर के शिर्क ही से इन्कार कर बैठे. (4) अबू सुफ़ियान, वलीद, नज़र और अबू जहल वग़ैरह जमा होकर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की क़ुरआने पाक की तिलावत सुनने लगे तो नज़र से उसके साथियों ने कहा कि मुहम्मद क्या कहते हैं. कहने लगा, मैं नहीं जानता, ज़बान को हरकत देते हैं और पहलों के क़िस्से कहते हैं जैसे मैं तुम्हें सुनाया करता हूँ अबू सुफ़ियान ने कहा कि इसका इक़रार करने से मर जाना बेहतर है. इस पर यह आयत उतरी. (5) इससे उनका मतलब कलामे पाक के अल्लाह की तरफ़ से नाज़िल होने का इन्कार करना है.
(6) यानी मुश्रिक लोगों को क़ुरआन शरीफ़ से या रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से और आप पर ईमान लाने और आपका अनुकरण करने से रोकते हैं. यह आयत मक्के के काफ़िरों के बारे में उतरी जो लोगों को सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम पर ईमान लाने और आपकी मजलिस में हाज़िर होने और क़ुरआन सुनने से रोकते थे और ख़ुद भी दूर रहते थे कि कहीं मुबारक कलाम उनके दिलों पर असर न कर जाए. हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया कि यह आयत हुज़ूर के चचा अबू तालिब के बारे में उतरी जो मुश्रिकों को तो हुज़ूर के तकलीफ़ पहुंचाने से रोकते थे और ख़ुद ईमान लाने से बचते थे. (7) यानी इसका नुक़सान ख़ुद उन्हीं को पहुंचता है. (8) दुनिया में. (9) जैसा कि ऊपर इसी रूकू में बयान हो चुका कि मुश्रिकों से जब फ़रमाया जाएगा कि तुम्हारे शरीक कहाँ हैं तो वो अपने कुफ़्र को छुपा जाएंगे और अल्लाह की क़सम खाकर कहेंगे कि हम मुश्रिक न थे. इस आयत में बताया गया कि फिर जब उन्हें ज़ाहिर हो जाएगा जो वो छुपाते थे, यानी उनका कुफ़्र इस तरह ज़ाहिर होगा कि उनके शरीर के अंग उनके कुफ़्र और शिर्क की गवाहीयाँ देंगे, तब वो दुनिया में वापस जाने की तमन्ना करेंगे. (10) यानी काफ़िर जो रसूल भेजे जाने और आख़िरत के इन्कारी हैं. इसका वाक़िआ यह था कि जब नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने काफ़िरों को क़यामत के एहवाल और आख़िरत की ज़िन्दगानी, ईमानदारी और फ़रमाँबरदारी के सवाब, काफ़िरों और नाफ़रमानों पर अज़ाब का ज़िक्र फ़रमाया तो काफ़िर कहने लगे कि ज़िन्दगी तो बस दुनिया ही की है. (11) यानी मरने के बाद. (12) क्या तुम मरने के बाद ज़िन्दा नहीं किये गए.
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