हकीम बिन माविया कुरैशी रहमतुल्लाह अलैह कहते है कि मेरे वालिद ने हज़रत सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से दरयाफ्त किया कि हम पर हमारी बीबियों का क्या हक़ है ? हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैह वसल्लम ने फ़रमाया कि जब तुम खाना खाओ तो औरत को भी अपने साथ खिलाओ !
तुम पहनो तो उसे पहनाओ (मार से )उसके चेहरे को ना बिगाड़ो उससे अलाहिदगी इख़्तियार न करो अगर औरत नशूज (कुर्बत और मुजामेअत से इंकार )पर अडी हुयी है या राज़ी भी हो तो झगडे और नागवारी के साथ तो अव्वल शौहर उसे नसीहत करे अल्लाह रब्बुल के अजाब से डराये अगर फिर वह फिर भी अपनी ज़िद पर कायम रहे तो ख्वाबगाह मे उसको तन्हा छोड़ दे और (तीन रोज से कम तक )कलाम करना भी तर्क कर दे इस तरह अगर बाज़ आ जाये तो फब्बेहा वरना फिर उसको मारने का हक़ है लेकिन इस तरह कि ज़बृ का निशान ना उभरे दुर्रे या कोड़े ना मारे क्यूंकि औरत को मारने से गरज उस हलाक़ करना नहीं है बल्कि मकसूद यह है कि वह सरताबी से बाज आ जाये और फ़रमा पजीर बन जाये अगर इस तरह भी वह बाज ना आये तो फिर औरत अपने क़राबतदारो से एक शख्स और मर्द अपने अजीजों से एक शख्स को अपना वकील और पंच मुकर्रर कर ले…
और दोनों पंच मालमा गौर करे और जैसी मसलेहत हो ख्वाह सुलह या तफरीके माल के साथ हो या बगैर माल के अपना फैसला दे दे !… उनका फैसला जौजेन के लिए कतई होगा (दोनों को इस कि तालीम करनी होंगी )
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