(1) यह आयत यहूदियों और ईसाइयों के बारे में नाज़िल हुई, क्योंकि यहूदियों ने बैतुल मक़दिस के पू्र्व को और ईसाइयों ने उसके पशिचम को क़िबला बना रखा था और हर पक्ष का ख़्याल था कि सिर्फ़ इस क़िबले ही की तरफ़ मुंह करना काफ़ी है. इस आयत में इसका रद फ़रमाया गया कि बैतुल मक़दिस का क़िबला होना स्थगित हो गया. (मदारिक). तफ़सीर करने वालों का एक क़ोल यह भी है कि यह सम्बोधन किताब वालों और ईमान वालों सब को आम है. और मानी ये हैं कि सिर्फ क़िबले की ओर मुंह कर लेना अस्ल नेकी नहीं जब तक अक़िदे दुरूस्त न हों और दिल सच्ची महब्बत के साथ क़िबले के रब की तरफ़ मुतवज्जेह न हो.
(2) इस आयत में नेकी के छ: तरीक़े इरशाद फ़रमाए – (क) ईमान लाना (ख) माल देना (ग) नमाज़ कायम करना (घ) ज़कात देना (ण) एहद पूरा करना (6) सब्र करना. ईमान की तफ़सील यह है कि एक अल्लाह तआला पर ईमान लाए कि वह ज़िन्दा है, क़ायम रखने वाला है, इल्म वाला, हिकमत वाला, सुनने वाला, देखने वाला, देने वाला, क़ुदरत वाला, अज़ल से है, हमेशा के लिये है, एक है, उसका कोई शरीक नहीं. दूसरे क़यामत पर ईमान लाए कि वह सच्चाई है. उसमें बन्दों का हिसाब होगा, कर्मो का बदला दिया जाएगा . अल्लाह के प्रिय-जन शफ़ाअत करेंगा. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम सआदत- मन्दों या फ़रमाँबरदारों को हौज़े कौसर से जी भर कर पिलाएंगे, सिरात के पुल पर गुज़र होगा और उस रोज़ के सारे अहवाल जो क़ुरआन में आए या सैयदुल अम्बीया सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने बयान फ़रमाए, सब सत्य हैं. तीसरे, फ़रिश्तों पर ईमान लाए कि वो अल्लाह के पैदा किये हुए और फ़रमाँबरदार बन्दे हैं, न मर्द हैं, न औरत, उनकी तादाद अल्लाह ही जानता है . उनमें से चार बहुत नज़दीकी और बुज़ुर्गी वाले हैं, जिब्रईल, मीकाईल, इस्त्राफ़ील, इज़राईल (अल्लाह की सलामती उन सब पर). चौथे, अल्लाह की किताबों पर ईमान लाना कि जो किताब अल्लाह तआला ने उतारी, सच्ची है. उनमें चार बड़ी किताबें हैं – (1) तौरात हज़रत मूसा पर (2) इंजल हज़रत ईसा पर,
(3) ज़ुबूर हज़रत दाऊद पर और (4) क़ुरआन हज़रत मुहम्मदे मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व अलैहिम अजमईन पर नाज़िल हुईं. और पचास सहीफ़े हज़रत शीस पर, तीस हज़रत इद्रीस पर, दस हज़रत आदम पर और दस हज़रत ईब्राहीम पर नाज़िल हुए. पाँचवें, सारे नबायों पर ईमान लाना कि वो सब अल्लाह के भेजे हुए हैं और मासूम यानी गुनाहों से पाक हैं. उनकी सही तादाद अल्लाह ही जानता है. उनमें 313 रसूल हैं.
“नबिययीन” बहुवचन पुल्लिंग में ज़िक्र फ़रमाना इशारा करता है कि नबी मर्द होते हैं. कोई औरत कभी नबी नहीं हुई जैसा कि “वमा अरसलना मिन क़बलिका इल्ला रिजालन” (और हमने नहीं भेजे तुमसे पहले अपने रसूल मगर सिर्फ़ मर्द) सूरए नहल की 43वीं आयत से साबित है.
ईमाने मुजमल यह है “आमन्तो बिल्लाहे व बिजमीए मा जाआ बिहिन नबिय्यो” (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम) यानी मैं अल्लाह पर ईमान लाया और उन तमाम बातों पर जो नबियों के सरदार सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम अल्लाह के पास से लाए. (तफ़सीरे अहमदी)(3) ईमान के बाद कर्मो का और इस सिलसिले में माल देने का बयान फ़रमाया. इसके छः उपयोग ज़िक्र किये. गर्दनें छुड़ाने से ग़ुलामों का आज़ाद करना मुराद है.
यह सब मुस्तहब तौर पर माल देने का बयान था. इस आयत से मालूम होता है कि सदक़ा देना, तनदुरूस्ती की हालत में ज़्यादा पुण्य रखता है, इसके विपरीत कि मरते वक़्त ज़िन्दगी से निराश होकर दे. हदीस शरीफ़ में है कि रिश्तेदार को सदक़ा देने में दो सवाब हैं, एक सदक़े का, दूसरा ज़रूरतमन्द रिश्तेदार के साथ मेहरबानी का. (नसाई शरीफ़)(4) यह आयत औस और ख़ज़रज के बारे में नाज़िल हुई.
उनमें से एक क़बीला दुसरे से जनसंख्या में, दौलत और बुज़ुर्गी में ज़्यादा था. उसने क़सम खाई थी कि वह अपने ग़ुलाम के बदले दूसरे क़बीले के आज़ाद को, और औरत के बदले मर्द को, और एक के बदले दो को क़त्ल करेगा.
जाहिलियत के ज़माने में लोग इसी क़िस्म की बीमारी में फंसे थे. इस्लाम के काल में यह मामला सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में पेश हुआ तो यह आयत उतरी और इन्साफ़ और बराबरी का हुक्म दिया और इसपर वो लोग राज़ी हुए. कुरआने करीम में ख़ून का बदला लेने यानी क़िसास का मसअला कई आयतों में बयान हुआ है. इस आयत में क़सास और माफ़ी दोनों के मसअले हैं और अल्लाह तआला के इस एहसान का बयान है कि उसने अपने बन्दों को बदला लेने और माफ़ कर देने की पूरी आज़ादी दी, चाहें बदला लें, चाहें माफ़ कर दें. आयत के शुरू में क़िसास के वाजिब होने का बयान है.
(5) इससे जानबूझ कर क़त्ल करने वाले हर क़ातिल पर किसास का वुजूब अर्थात अनिवार्यता साबित होती है. चाहे उसने आज़ाद को क़त्ल किया हो या ग़ुलाम को, मुसलमान को या काफ़िर को, मर्द को या औरत को. क्योंकि “क़तला” जो क़तील का बहुवचन है, वह सबको शामिल है. हाँ जिसको शरई दलील ख़ास करे वह मख़सूस हो जाएगा. (अहकामुल क़ुरआन)
(6) इस आयत में बताया गया है कि जो क़त्ल करेगा वही क़त्ल किया जाएगा चाहे आज़ाद हो या ग़ुलाम, मर्द हो या औरत. और जाहलों का यह तरीक़ा ज़ल्म है जो उनमें रायज या प्रचलित था कि आज़ादों में लड़ाई होती तो वह एक के बदले दो को क़त्ल करते, ग़ुलामों में होती तो ग़ुलाम के बजाय आज़ाद को मारते. औरतों में होती तो औरत के बदले मर्द का क़त्ल करते थे और केवल क़ातिल के क़त्ल पर चुप न बैठते. इसको मना फ़रमाया गया.
(7) मानी ये हैं कि जिस क़ातिल को मृतक के वली या वारिस कुछ माफ़ करें और उसके ज़िम्मे माल लाज़िम किया जाए, उस पर मृतक के वारिस तक़ाज़ा करने में नर्मी इख़्तियार करें और क़ातिल ख़ून का मुआविज़ा समझबूझ के माहौल में अदा करे. (तफ़सीरे अहमदी). मृतक के वारिस को इख़्तियार है कि चाहे क़ातिल को बिना कुछ लिये दिये माफ़ करदे या माल पर सुलह करे. अगर वह इस पर राज़ी न हो और ख़ून का बदला ख़ून ही चाहे, तो क़िसास ही फ़र्ज़ रहेगा (जुमल) अगर मृतक के तमाम वारिस माफ़ करदें तो क़ातिल पर कुछ लाज़िम नहीं रहता. अगर माल पर सुलह करें तो क़िसास साक़ित (शून्य) हो जाता है और माल वाजिब होता है (तफ़सीरे अहमदी). मृतक के वली को क़ातिल का भाई फ़रमाने में इस पर दलालत है कि क़त्ल अगरचे बड़ा गुनाह है मगर इससे ईमान का रिशता नहीं टूटता. इसमें ख़ारजियों का रद है जो बड़े गुनाह करने वाले को काफ़िर कहते है.
(8) यानी जाहिलियत के तरीक़े के अनुसार, जिसने क़त्ल नहीं किया है उसे क़त्ल करे या दिय्यत क़ुबूल करे और माफ़ करने के बाद क़त्ल करे.
(9) क्योंकि क़िसास मुक़र्रर होने से लोग क़त्ल से दूर रहेंगे और जानें बचेंगी.
(10) यानी शरीअत के क़ानून के मुताबिक़ इन्साफ़ करे और एक तिहाई माल से ज़्यादा की वसिय्यत न करे और मुहताजों पर मालदारों को प्राथमिकता न दें. इस्लाम की शुरूआत में यह वसिय्यत फ़र्ज़ थी. जब मीरास यानी विरासत के आदेश उतरे, तब स्थगित की गई. अब ग़ैर वारिस के लिये तिहाई से कम में वसिय्यत करना मुस्तहब है. शर्त यह है कि वारिस मुहताज न हों, या तर्का मिलने पर मुहताज न रहें, वरना तर्का वसिय्यत से अफ़ज़ल है. (तफ़सीरे अहमद)
(11) चाहे वह व्यक्ति हो जिसके नाम की वसिय्यत की गई हो, चाहे वली या सरपरस्त हो, या गवाह. और वह तबदीली वसिय्यत की लिखाई में करे या बँटवारे में या गवाही देने में. अगर वह वसिय्यत शरीअत के दायरे में है तो बदलने वाला गुनहगार होगा.
(12) और दूसरे, चाहे वह वसिय्यत करने वाला हो या वह जिसके नाम वसिय्यत की गई है, बरी हैं.
(13) मतलब यह है कि वारिस या वसी यानी वह जिसके नाम वसिय्यत की जाय, या इमाम या क़ाज़ी जिसको भी वसिय्यत करने वाले की तरफ़ से नाईन्साफ़ी या नाहक़ कार्रवाई का डर हो वह अगर, जिसके लिये वसिय्यत की गई, या वारिसों में, शरीअत के मुवाफ़िक़ सुलह करादे तो गुनाह नहीं क्योंकि उसने हक़ की हिमायत के लिये बातिल को बदला एक क़ौल यह भी है कि मुराद वह शख़्स है जो वसिय्यत के वक़्त देखे कि वसिय्यत करने वाला सच्चाई से आगे जाता है और शरीअत के ख़िलाफ़ तरीक़ा अपनाता है तो उसको रोक दे और हक़ व इन्साफ़ कर हुक्म करे
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