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जिस से जिगरे लाला में ठण्डक हो वह शबनम दरियाओं के दिल जिस से दहल जायें वह तूफां इमाम अहमद रज़ा खां बरेलवी कुद्देस सिर्रहू जिस तरह अपने दौर में मर्कजे दायरए उलूम व फुनून थे ।
उसी तरह मस्त जामे बादए उल्फ़त होने में मुन्फरिद और महबूबे परवरदिगार , अहमदे मुख़्तार सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के शैदाइयों में अपनी मिसाल आप थे । आप का इश्के रसूल एक पिघलती हुई शमा होना मशहूरे खलाइक है
जिस का मोतकिदीन व मुखालिफ़ीन सब को एतराफ है । मैदाने अमल में मोहब्बत का इज़हार चार तरह होता है ।
(1) महबूब के फिराक में तड़पना , वेस्ल को मन्ज़िले मकसूद समझना और उसके ज़िक्र व फिक्र में मुस्तग़रक रहना ।
(2) महबूब के यारों और प्यारों का दिली मोहब्बत से अदब व एहतराम करना ।
(3) महबूब के हर कौल व फेअल को महबूब समझ कर अपना दस्तूरूल अमल बनाए रखना ।
(4) महबूब के दुश्मनों से दिली नफ़रत रखना । आला हज़रत कुद्देस सिरहू की सीरत का मरकज़ व महवर , सिर्फ और सिर्फ जज़्बए इश्के रसूल था । अगर मुजद्दिदे हाज़िरा की सीरत कोई चन्द लफ्जों में पूछना चाहे तो फकीर गुलाम मुस्तफा जीलानी (गुलाम जीलानी) बिला खौफे तरदीद , अलल एलान कहता है
कि ” आला हज़रत की सीरत इशके रसूल के तकाज़ों का मजमूआ थी । ” आप की जुमला तसानीफ हमारे इस दावा के रौशन दलाइल हैं
और नातिया दीवान ” हदाइके बख्शिश “ तो वह मुंह बोलता सुबूत है जिस की नज़ीर चश्मे फलक कुहन ने कम ही देखी होगी ।
नबी करीम सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम से आप की वालिहाना मोहब्बत के सिलसिले में यहां बहस करना तकरार का मोजिब और बाइसे तवालत होगा जबकि दूसरी किताब के अन्दर आपके नातिया कलाम का नमूना मौजूद है ।

Aala Hazrat Imam Ahmed Raza Khan رضي الله عنه Faazil e Bareilly Sharif ki muqaddas zindagi in Hindi, Life of aalahazrat

नीज़ मन्सबे रिसालत के तहत उस किताब में मुख्तलिफ़ उनवानात पर आप की निगारिशात का खुलासा पेश किया जाएगा इन्शाअल्लाह तआला । अब देखना यह है कि इमाम अहमद रज़ा खां बरेलवी को नबी करीम सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के यारों और प्यारों की किस कदर दिली मोहब्बत थी
और किस दर्जा आप उनका अदब व एहतराम करते थे । इस अम्र का भी एक आलम शाहिद है कि फाजिले बरेलवी जैसा अंबियाए किराम व औलियाए एज़ाम के नंग व नामूस का पासबान और ताज़ीम व तौकीर का अलमबरदार दूसरा देखने में नहीं आया , बल्कि बाज़ हज़रात तो अपनी दूरबीन निगाहों से देख कर यहां तक फ़रमा गए
कि अगर इस दौरे पुर फेतन में इमाम अहमद रज़ा ख़ां बरेलवी पैदा न होते तो मुकर्रेबीने बारगाहे इलाहिया के अदब व एहतराम को वहाबियत की तुन्द व तेज़ आंधी ख़स व खाशाक की तरह उड़ा कर ले जाती ।
चूंकि इस सिलसिले में कई मसाइल शामिले मजमूआ हैं लिहाज़ा ज़्यादा अर्ज़ करने की यहां हाजत नहीं । हज़रत गौसे आज़म रज़ियल्लाहु तआला अन्हु की अकीदत के बारे में मौलाना बदरूद्दीन अहमद साहब ने एक वाकिआ बयान किया है
जो मौसूफ के अल्फाज़ में यूं है । ” छ बरस की उम्र में आप ने मालूम कर लिया था कि बग़दाद शरीफ किधर है , फिर उस वक्त से आख़िर दम तक बगदाद शरीफ की जानिब पांव नहीं फैलाए । आला हज़रत के नामवर शागिर्द व खलीफा हज़रत मुहद्दिस आजमे हिन्द किछौछवी सैयद अहमद अशरफ जीलानी अलैहिर्रहमा ने इस सिलसिले में एक वाकिआ यूं बयान किया है । ” मैं उस सरकार में किस कदर शोख़ था या शौख बना दिया गया था ,
अपना जवाब आला हज़रत की नशिस्त की चारपाई पर रख कर अर्ज़ करने लगा हुजूर ! क्या इस इल्म का कोई हिस्सा अता न होगा , जिस का उलमाए किराम में निशान भी नहीं मिलता । मुस्कुराकर फ़रमाया कि मेरे पास इल्म कहां , जो किसी को दूं । यह तो आप के जद्दे अमजद सरकारे गौसीयत का फ़ज़ल व करम है और कुछ नहीं ।
यह जवाब मुझ नंगे खान्दान के लिए ताज़ियानए । इबरत भी था कि लूटने वाले लूट कर खज़ाना वाले हो गए और मैं ” पिदरम सुल्तान बूवद ” के नशा में पड़ा रहा और यह जवाब इसका भी निशान देता था कि इल्मे रासिख वाले मकामे तवाज़ो में क्या होकर अपने को क्या कहते हैं ।
यह शोखी मैंने बार बार की और यही जवाब अता होता रहा और हर मर्तबा में ऐसा हो गया कि मेरे वजूद के सारे कुल पुर्जे मुअत्तल हो गए हैं ।
इसी सिलसिले में हज़रत मुहद्दिस आजम किछौछवी एक दूसरा वाकिआ और बयान फ़रमाते हैं , जो मौसूफ के तब्सरे के साथ कारेईने किराम की खिदमत में पेश करने की सआदत हासिल कर रहा हूं ।
” दूसरे दिन कारे इफता पर ( मुहद्दिस आजमे हिन्द साहब को ) लगाने से पहले , खुद गियारह रूपये की शीरीनी मंगाई . अपने पलंग पर मुझको बिठाकर और शेरीनी रख कर , फातिहा गौसिया पढ़कर , दस्ते करम से शीरीनी मुझको भी अता फरमाई और हाज़िरीन में तकसीम का हुक्म दिया कि अचानक आला हज़रत पलंग से उठ पड़े । सब हाज़िरीन के साथ मैं भी खड़ा हो गया कि शायद किसी शदीद हाजत से अन्दर तशरीफ ले जायेंगे ।
लेकिन हैरत बालाए हैरत यह हुई कि आला हज़रत ज़मीन पर उकडूं बैठ गए । समझ में न आया कि यह क्या हो रहा है ?

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देखा तो यह देखा कि तकसीम करने वाले की गफलत से शीरीनी का एक ज़र्रह ज़मीन पर गिर गया था और आला हज़रत उस ज़रें का नोके ज़बान से उठा रहे हैं और फिर अपनी नशिस्त गाह पर बदस्तूर तशरीफ़ फ़रमा हुए ।
इसको देखकर सारे हाज़िरीन सरकारे गौसीयत की अज़मत व मोहब्बत में डूब गए और फातिहा गौसिया की शीरनी के एक एक ज़र्रे के तबलैक हो जाने में किसी दूसरी दलील की हाजत न रह गई

और अब मैं ने समझा कि बार बार जो मुझसे फ़रमाया गया कि मैं कुछ नहीं , यह आप के जद्दे अमजद का सदका है , वह मुझे ख़ामोश कर देने के लिए ही न था और न सिर्फ मुझको शर्म दिलाना ही थी बल्कि दर हकीकत आला हज़रत , गौसे पाक के हाथ में ” चूं कलम दर दस्ते कातिब ” थे , जिस तरह गौसे पाक , सरवरे दो आलम मुहम्मद रसूलुल्लाह सल्लल्लाह तआला अलैहि वसल्लम के हाथ में चूं कलम दर दस्ते कातिब थे और
कौन नहीं जानता कि रसूले पाक अपने रब की बारगाह में ऐसे थे कि कुरआने करीम ने फरमाया
। व मा यनतिकु अनिल हवा इन हुवा इल्ला वहियुन यूहा ।
नबी करीम सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की औलादे अमजाद यानी हज़रात सादाते किराम का इमाम अहमद रजा खां बरेलवी किस दर्जा अदब व एहतराम करते और ताजीम व तौकीर बजा लाते , ऐसे बेशुमार वाकिआत हैं ।
एक वाकिआ मुलाहज़ा हो । 
किसी रोज़ एक सैयद साहब ने ज़नान खाने के दरवाजे पर आकर आवाज़ दी : ” दिलवाओ सैयद को ” आला हज़रत ने अपनी आमदनी से अख़राजाते उमूरे दीनिया के लिए दो सौ रूपया माहवार मुकर्रर फ़रमाए थे । उस माह की रकम उसी रोज़ आप को मिली थी । सैयद साहब की आवाज़ सुनते ही फौरन वह रूपयों वाला आफ़िस बक्स लेकर दौड़े और सैयद साहब के सामने पेश कर के फ़रमायाः हुजूर ! यह नज़राना हाज़िर है ।
सैयद साहब काफी देर तक इस रकम को देखते रहे और फिर एक चवन्नी उठा कर फ़रमायाः बस ले जाइए । आला हज़रत ने ख़ादिम से फरमाया कि जब इन सैयद साहब को देखो तो फौरन एक चवन्नी नज़ कर दिया करना ताकि उन्हें सवाल करने की ज़हमत न उठानी पड़े । ” मैं इक मुहताजे बे वकअत गदा तेरे सगे दर का तेरी सरकार वाला है , तेरा दरबार आली है इसी सिलसिले में एक दूसरा ईमान अफ़रोज़ वाकिआ मुलाहिज़ा फ़रमाईए , जो दर्से अदब का आईना है
एक दफ़ा बाद नमाजे जुमा आला हज़रत फाटक में तशरीफ़ फ़रमा थे कि शैख़ इमाम अली कादरी रज़वी ( मालिक होटल आइस्क्रीम बम्बई ) के छोटे भाई ( मौलवी नूर मुहम्मद साहब जो उन दिनों बरैली शरीफ़ में पढ़ते थे ) के कनाअत अली , कनाअत अली पुकारने की आवाज़ आई । आला हज़रत कुद्देस सिरहू ने उन्हें बुलवाया और फ़रमाया किः अज़ीज़म ! सैयद साहब को इस तरह पुकारते हो ? मौलवी नूर मुहम्मद साहब ने नदामत से नज़रें झुका लीं । आप ने फ़रमायाः सादात की ताजीम का आइन्दा ख्याल
रखिए
और जिस आली घराने के यह अफराद हैं उसकी अज़मत को हमेशा पेशे नज़र रखिए । इसके बाद हाज़िरीन को मुखातिब करके फ़रमाया कि सादात का इस दरजा एहतराम मल्हूज़ रखना चाहिए कि काज़ी अगर किसी सैयद पर हद लगाए . तो यह ख्याल तक न करे कि मैं इसे सज़ा दे रहा हूं बल्कि यूं तसव्वुर करे कि शाहज़ादे के पैरों में कीचड़ भर गई है उसे धो रहा हूं ।

तेरी नस्ले पाक में है बच्चा बच्चा नूर का
तू है ऐने नूर तेरा सब घराना नूर का

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सादात के एजाज़ व इकराम के मुताल्लिक एक सबक आमोज़ वाकिआ और आला हज़रत का मामूल मुलाहिजा होः
आला हज़रत के हां दस्तूर था कि मीलाद शरीफ के मौका पर सैयद हज़रात को आप के हुक्म से दो गुना हिस्सा मिला करता था । एक दफ़ा सैयद महमूद जान साहब को तकसीम करने वाले की गलती से इकहरा हिस्सा मिला । आला हज़रत को मालूम हुआ तो फौरन तक़सीम करने के वाले को बुलवाया और उस में एक ख्वान शीरीनी को भरवा कर मंगवाया , फिर माज़रत चाहते हुए सैयद साहब मौसूफ की नज्र किया और तक़सीम करने वाले को हिदायत की
कि कोई आइन्दा ऐसी गलती का इआदा न हो
क्योंकि हमारा क्या है ?
सब कुछ इन हज़रात के ही आली घराने की भीक है । इसी लिए तो आला हज़रत कुद्देस सिर्रहू बारगाहे रिसालत में यूं अर्ज परदाज़ हुआ करते थे ।
आसमां ख्वां , ज़मीन ख्वा , ज़माना मेहमां साहबे खाना लकब किस का है ?
तेरा इस दौरे पुर फेतन में जबकि शाने रिसालत में लोग गुस्ताखियां और जरी हो गए . बाज़ तो वहाबियत की नुहूसत के जेरे असर गज़ गज़ भर की जुबान निकाल कर मन्सबे नबुब्बत पर इस अन्दाज़ से गुफ्तगू करते हैं
कि सुनने वाला यह सोचने पर मजबूर हो जाता है कि या इलाही ! क्या यह एक उम्मती कहलाने वाले के अल्फाज़ हैं ?
क्या इसने मुसलमान कहलाने के जुमला हुकूक महफूज़ करवा छोड़े हैं ? यह तौहीद के तो साफ नज़र आएगा कि सुन्नते रसूल के आप हद दर्जा मुत्तबे और महबूब की रज़ा जोई में हर वक्त कोशां रहते थे ।
अरब व अजम के मुम्ताज़ अहले इल्म और बा कमाल हज़रात ने भी तस्लीम किया है कि फ़ाज़िले बरेलवी कुद्देस सिर्रहू जैसा माहीए सुन्नत और कातेए बिदअत उस दौर में कोई देखा नहीं गया ।
इत्तिबाए सुन्नत आप की फ़ितरते सानिया बन गया था । यह हालात की सितम ज़रीफ़ी है कि मुब्तदेईने ज़माना जिन की जमाअतें तक बिदअत और ब्रिटिश गवर्नमेन्ट के अहद की ज़िन्दा यादगार हैं
और जो कुफ़िया बिदआत तक के मुरतकिब व मोतकिद है वह फाज़िले बरैलवी जैसे मुत्तबए सुन्नत और दुशमने बिदअत पर न सिर्फ बिदअती बल्कि सर चश्मए बिदआत होने का इलज़ाम लगा कर हकीकते हाल से बे खबर मुसलमानों को गुमराह करने में मसरूफ रहते है
और इस तरह अपने अकाबिर की बे राह रवी पर पर्दा डालने की ग़र्ज़ से कैसे कैसे बुजुर्गो पर बुहतान बाज़ी और इलज़ाम तराशी का बाज़ार गर्म किए रखते हैं ।
जैल में आला हज़रत के एहतिमामे शरीअत और इत्तिबाए सुन्नत के चन्द वाकिआत और आप के मामूलात पेश किए जाते हैं ।
इकामते सलातः 
इस सिलसिले में सैयद , अय्यूब अली रज़वी का बयान मुलाहज़ा होः ” आला हज़रत तन्दुरूस्त हों या बीमार । पांचों वक्त मस्जिद में बा जमाअत नमाज़ अदा करने के खूगर थे और अपने मुरीदों को भी हमेशा इस अम्र की ख़ास हिदायत फ़रमाया करते थे । जमाअत का मुकर्रर वक्त हो जाने पर किसी का इन्तिज़ार न करते थे । मौसमे गर्मा में नमाज़ ज़रा देर करके पढ़ते लेकिन ऐसा नहीं कि मकरूह वक्त आ जाए । नमाज़ अदा करते वक्त रूकू , सुजूद , कौमा , कादा और जलसा वगैरह की सहीह अदायगी का खास ख्याल रखते थे । आप हुरूफ को उनके मख़ारिज से सिफाते लाज़िमा व मुहस्सिना के साथ अदा करने में बहुत एहतियात फ़माया करते थे ।
तो साफ नज़र आएगा कि सुन्नते रसूल के आप हद दर्जा मुत्तबे और महबूब की रज़ा जोई में हर वक्त कोशां रहते थे । अरब व अजम के मुम्ताज़ अहले इल्म और बा कमाल हज़रात ने भी तस्लीम किया है
कि फ़ाज़िले बरेलवी कुद्देस सिर्रहू जैसा माहीए सुन्नत और कातेए बिदअत उस दौर में कोई देखा नहीं गया ।
इत्तिबाए सुन्नत आप की फ़ितरते सानिया बन गया था । यह हालात की सितम ज़रीफ़ी है कि मुब्तदेईने ज़माना जिन की जमाअतें तक बिदअत और ब्रिटिश गवर्नमेन्ट के अहद की ज़िन्दा यादगार हैं
और जो कुफ़िया बिदआत तक के मुरतकिब व मोतकिद है वह फाज़िले बरैलवी जैसे मुत्तबए सुन्नत और दुशमने बिदअत पर न सिर्फ बिदअती बल्कि सर चश्मए बिदआत होने का इलज़ाम लगा कर हकीकते हाल से बे खबर मुसलमानों को गुमराह करने में मसरूफ रहते है और इस तरह अपने अकाबिर की बे राह रवी पर पर्दा डालने की ग़र्ज़ से कैसे कैसे बुजुर्गो पर बुहतान बाज़ी और इलज़ाम तराशी का बाज़ार गर्म किए रखते हैं ।
जैल में आला हज़रत के एहतिमामे शरीअत और इत्तिबाए सुन्नत के चन्द वाकिआत और आप के मामूलात पेश किए जाते हैं । इकामते सलातः इस सिलसिले में सैयद , अय्यूब अली रज़वी का बयान मुलाहज़ा होः ” आला हज़रत तन्दुरूस्त हों या बीमार । पांचों वक्त मस्जिद में बा जमाअत नमाज़ अदा करने के खूगर थे और अपने मुरीदों को भी हमेशा इस अम्र की ख़ास हिदायत फ़रमाया करते थे । जमाअत का मुकर्रर वक्त हो जाने पर किसी का इन्तिज़ार न करते थे । मौसमे गर्मा में नमाज़ ज़रा देर करके पढ़ते लेकिन ऐसा नहीं कि मकरूह वक्त आ जाए । नमाज़ अदा करते वक्त रूकू , सुजूद , कौमा , कादा और जलसा वगैरह की सहीह अदायगी का खास ख्याल रखते थे । आप हुरूफ को उनके मख़ारिज से सिफाते लाज़िमा व मुहस्सिना के साथ अदा करने में बहुत एहतियात फ़माया करते थे ।
एक दफा कोई साहब जुहर की चार सुन्नतें पढ़कर फ़ारिग हुए तो आप ने उनको अपने पास बुलाया और फ़रमाया कि आप की एक रकआत भी नहीं हुई ।
क्योंकि सज्दा करते वक़्त आप की नाक ज़मीन से अलाहदा रही नीज़ पैरों की उंगलियों में से किसी एक का पेट ज़मीन से नहीं लगा था कि कम अज़ कम फ़र्ज़ तो अदा हो जाता , वाजिबात व सुनन व मुस्तहब्बात तो अलाहदा रहे । आप सुन्नतें फिर पढ़िये और हमेशा इस बात का ख्याल रखिए कि नाक की हड्डी , जिस को बांसा कहते हैं ( अपनी नाक पर उंगली रख कर बताया ) यह और पैरों की कम अज़ कम एक उंगली का पेट ज़मीन से लगा रहना चाहिए
वरना अगर कोई शख़्स नूह अलैहिस्सलाम की बराबर भी उम्र पाए और इसी तरह नमाजें पढ़ता रहेगा , तो याद रखिए कि वह सब अकारत ही जायेंगी ।
मैं ने आला हज़रत को अक्सर औकात सफ़ेद लिबास में ही मलबूस देखा था । पाजामा बड़े पाइंचा का पहनते थे । नमाज़ के वक्त हमेशा पगड़ी सर पर रखते थे और फर्ज तो बगैर पगड़ी के कभी अदा नहीं किया ।

Aala Hazrat Imam Ahmed Raza Khan رضي الله عنه Faazil e Bareilly Sharif ki muqaddas zindagi in Hindi, Life of aalahazrat

एक दफ़ा अशरह मुहर्रमुल हराम के दिनों में एक साहब बादे नमाजे जुमा आला हज़रत के फाटक में तशरीफ़ फ़रमा थे । उनके सर पर स्याह टोपी थी । आला हज़रत ने उन्हें देखा तो अपने दौलत खाना से सफेद टोपी मंगवाकर उनको देते हुए फ़रमाया कि इसे ओढ़ लीजिए और स्याह टोपी उतार दीजिए कि इसमें इज़्ज़दारों से मुशाबिहत का शुबह है । एक वलीए कामिल और मुजद्दिदे वक़्त की टोपी मिलने पर हाज़िरीन को उन साहब के मुकद्दर पर रश्क आ रहा था । एक दफा आला हज़रत सख़्त बीमार थे । नशिस्त व बरखास्त की बिल्कुल ताकत न थी ।
इस के बावजूद फ़र्ज़ नमाज़ मस्जिद में बा जमाअत अदा करते थे इन्तिज़ाम यह था कि कुर्सी बांध कर चार आदमी आप को मस्जिद में ले जाते और बादे नमाज़ दौलत खाना में पहुंचा देते । बारहा मैं ने अपनी आंखों से देखा कि इस नाजुक हालत में भी आप खड़े होकर नमाज़ पढ़ने का इरादा करते , ताक़त न देखते हुए मजबूरन बैठ कर पढ़नी पड़ती , लेकिन ऐसी हालत में भी दोनों पैरों की उंगलियों के पेट ज़मीन पर लगाने की बेहद सई फ़रमाते ।

 Aala Hazrat Imam Ahmed Raza Khan رضي الله عنه Faazil e Bareilly Sharif ki muqaddas zindagi in Hindi, Life of aalahazrat    एहतरामे मसाजिद 

 हर मस्जिद खुदा का घर , इबादत का मकाम और शआएरूल्लाह में शामिल है । शआएरुल्लाह का एहतेराम तकवा की निशानी है । इमाम अहमद रज़ा खां बरेलवी मस्जिद के छोटे छोटे आदाब का भी बड़ा ख्याल रखते थे । सैयद अय्यूब अली रज़वी मरहूम ने बाज़ चश्म दीद हालात यूं बयान किए हैं ।
‘ नमाजे जुमा के लिए आला हज़रत रहमतुल्लाह अलैहि जिस वक्त तशरीफ लाते तो फर्श मस्जिद पर कदम रखते ही तक़दीमे सलाम फरमाते । इसी तरह मस्जिद के जिस दर्जा में दुरूद होता जाता आप सलाम की तकदीम करते । इस बात की भी आंखें शाहिद हैं कि मस्जिद के हर दर्जा में वस्ती दर से दाखिल हुआ करते ख्वाह आस पास के दरों से दाखिल होने में सुहूलत ही क्यों न हो ।
नीज़ बाज़ औकात औराद व वज़ाइफ मस्जिद में ही बहालते खराम शेमालन जुनूबन पढ़ा करते मगर मुन्तहाए फर्श मस्जिद से वापस हमेशा किब्ला रू हो कर ही होते , किब्ला की तरफ पुश्त करते हुए कभी किसी ने नहीं देखा । मस्जिद के आदाब में दाखिल है कि अन्दर दाखिल होते वक्त दायां कदम रखा जाए और मस्जिद से जाते वक्त पहले बायां क़दम बाहर रखना चाहिए ।
सैयद अय्यूब अली रजवी की ज़बानी इमाम अहले सुन्नत का अमल मुलाहज़ा फरमाइए । ‘ एक दफा फरीज़ए फज्र अदा करने में खिलाफे मामूल किसी कदर देर हो गई । नमाज़ियों की नज़रें बार बार काशानए अकदस की तरफ उठ रही थीं कि इसी अस्ना में आप जल्दी जल्दी तशरीफ लाते हुए दिखाई दिए ।
उस वक्त बिरादरम सैयद कनाअत अली ने अपना यह ख्याल मुझ पर ज़ाहिर किया कि इस तंग वक्त में देखना यह है कि हज़रत दायां कदम मस्जिद में पहले रखते हैं या बायां ? लेकिन कुरबान जायें इस आशिके रसूल और मुत्तबए सुन्नत के . कि दरवाज़ए मस्जिद के जीने पर जिस वक़्त कदमे मुबारक रखा तो दायां , तौसीई फर्श मस्जिद पर कदम पहले रखा तो दायां , कदीमी फर्श मस्जिद पर भी दायां कदम पहले रखा , यूं ही हर सफ पर तकदीम दायें कदम ही से फरमाई . हत्ता कि मेहराब में मुसल्ले पर दायां कदम ही पहले पहुंचा । ”
आदाबे मस्जिद के सिलसिले में सैयद अय्यूब अली रज़वी का एक चश्म दीद वाकिआ और मुलाहज़ा फरमाइए । एक साहब जिन्हें नवाब साहब कहा जाता था , मस्जिद में नमाज पढ़ने आए और खड़े खड़े बे परवाई से अपनी छड़ी मस्जिद के फर्श पर गिरा दी , जिस की आवाज़ हाज़िरीने मस्जिद ने सुनी ।
आला हज़रत ने फरमाया । नवाब साहब मस्जिद में ज़ोर से क़दम रख कर चलना भी मना है , फिर कहां छड़ी को इतने ज़ोर से डालना ? नवाब साहब ने मेरे सामने अहद किया कि इन्शाअल्लाह तआला आइन्दा ऐसा नहीं होगा । शआएरुल्लाह की ताजीम व तौकीर कुरआनी इस्तेलाह में दिली तकवा की निशानी है । आइए देखें तो सही कि मुजद्दिदे हाज़िरा कुद्देस सिरहू मस्जिद का अदब व ऐहतराम कहां तक मलहूज़ रखते थे ।
अल्लामा जफरूद्दीन बिहारी अलैहिर्रहमा रकमतराज़ हैं । ” एक मर्तबा सैयदी इमाम अहमद रज़ा खां मस्जिद में मोतकिफ थे । सर्दी का मौसम था और देर से मुसलसल बारिश हो रही थी । हज़रत को नमाजे इशा के लिए वजू करने की फिक्र हुई । पानी तो मौजूद था लेकिन बारिश से बचाव की कोई जगह ऐसी न थी जहां वुजू कर लिया जाता , क्योंकि मस्जिद में मुस्तामल पानी का एक कतरा तक गिराना भी जाइज़ नहीं है

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आखिर कार मजबूर होकर मस्जिद के अन्दर ही लेहाफ और गद्दे की चार तह करके उन पर वुजू कर लिया । और एक कतरा तक फर्श मस्जिद पर गिरने नहीं दिया । सर्दियों की रात , जिस में तूफ़ाने बादोबारां के इज़ाफात , मगर खुद इतनी सर्दी में ठिठुरते हुए रात गुज़ारनी मंजूर की लेकिन ऐसी दुशवारी में भी मस्जिद की इतनी सी बे हुर्मती बर्दाशत न की ।
क्या इस दर्जा मस्जिद का एहतेराम मलहूज़ रखने वाला कोई शख्स आप की नज़र से गुज़रा है ? आम तौर पर तो यही देखने में आता है कि दीनी तरबीयत गाहों के तलबा और असातजा तक बाज़ औकात जमाअत में शामिल होने की खातिर , रकअत जाती हुई देख कर भाग दौड़ भी लेते हैं और आज़ाए वजू का पोछे बगैर मस्जिद के फर्श पर चल फिर लेते हैं हालांकि इस तरह मस्जिद की सफें मुस्तामल पानी से गीली होती हैं , वुजू करने के बाद पानी के कतरे तक मस्जिद में टपकते रहते हैं
जबकि यह उमूर एहतेराम मस्जिद के खिलाफ हैं । काश ! इमामे अहले सुन्नत के मामूलात से मुसलमान सबक़ हासिल करें ।
नाबालिग बहिश्ती मुअल्लिमीन हज़रात तवज्जोह नहीं फ़रमाते और नाबालिग शागिर्दो से बगैर उनके वालिदैन की इजाज़त के ख़िदमत लेते रहते हैं । इस सिलसिले में सैयद रज़ा अली साहब का यह बयान मुलाहज़ा फरमाइए ।
आला हज़रत की ज़िन्दगी में अहकर मस्जिद में नमाज़ पढ़ने गया । हज़रत की मस्जिद के कुंए पर एक नाबालिग बहिशती ( सिका ) पानी भर रहा था । मैं ने जब लड़के से वुजू के लिए पानी मांगा तो उसने जवाब दिया । ” मुझे पानी देने में कोई उज़ नहीं है लेकिन बड़े मौलवी साहब ( यानी आला हज़रत ) ने मुझे किसी भी नमाज़ी को पानी देने से मना फरमा दिया है
और बताया है कि जो वुजू के लिए पानी मांगे उससे साफ़ साफ़ कह देना कि मेरे भरे हुए पानी से आप का वुजू नहीं होगा । क्योंकि मैं नाबालिग हूं । मुफ्तिये आगरा मौलाना सैयद दीदार अली शाह रहमतुल्लाह अलैहि बानीए हिज्बुल अहनाफ़ लाहौर के साथ भी ऐसा ही वाकिआ पेश हुवा पहली या दूसरी दफ़ा बरैली शरीफ़ हाज़िर हुए थे । वाकिआ यह है
मौलवी मुहम्मद हुसैन साहब मेरठी मूजिद तिलसमी प्रेस का बयान है कि एक मर्तबा हज़रत मौलाना दीदार अली साहब अलवरी रहमतुल्लाह तआला अलैहि तशरीफ़ लाए , जमाअत का वक़्त था , मस्जिद के कुएं पर एक बहिश्ती का लड़का पानी भर रहा था , जल्दी की वजह से उसी लड़के से पानी तलब फरमाया ।
उसने कहा मौलाना मेरे भरे हुए पानी से आप का वुजू जाइज़ नहीं और नहीं दिया । मौलाना को गुस्सा आया और फरमाया कि हम जब तुझ से ले रहे हैं तो क्यों जाइज़ नहीं ? उसने कहा मुझे देने का इख्तियार नहीं , क्योंकि मैं नाबालिग हूं । मौलाना को और गुस्सा आया , जमाअत हो रही है और यहां और देर लग रही है । फ़रमायाः आखिर तू जहां जहां पानी देता है उनका वुजू कैसे हो जाता है ? उसने कहा वह लोग तो मुझसे मोल लेते आया
हैं ।

और गुस्सा आया मगर उसने नहीं दिया । आख़िर कार खुद भरा और जल्दी जल्दी वुजू करके नमाज़ में शरीक हुए । जब गुस्सा कम हुआ और सलाम फेरा तो ख्याल आया कि वह बहिश्ती का लड़का अज़ रूए फिकह सही कहता था । दीदार अली ! तुम से तो आला हज़रत के यहां के खिदमतगारों के बच्चे भी ज़्यादा इल्म रखते हैं । यह सब आला हज़रत के इत्तिबाए शरीअत का फैज़ है ।
वालिदा की रज़ा जोई
: इरशादे खुदावन्दी किसे मालूम न होगा कि वालिदैन के सामने उफ भी न करो ।

फरमाने मुस्तफ़वी है कि जन्नत तुम्हारी माओं के कदमों तले है । यानी उनकी खिदमत करके जन्नत हासिल कर लो । अमली और ज़बानी मैदान में बड़ा फर्क है । आइए ज़रा इमाम अहमद रज़ा खां का तर्जे अमल देखें । मन्कूल है : हज़रत शाह इस्माईल हसन मियां साहिब का बयान है कि जब मौलाना ( आला हज़रत ) के वालिद माजिद मौलाना नकी अली खां साहिब ( अलमुतवफ्फा १२६७ हि . / १८८० ई ० ) का इन्तिकाल हुआ । आला हज़रत अपने हिस्सए जाइदाद के खुद मालिक थे
मगर सब इख्तियार वालिदा माजिदा के सुपुर्द था . वह पूरी मालिका व मुतसर्रिफ़ा थीं , जिस तरह चाहतीं सर्फ करतीं । जब मौलाना को किताबों की ख़रीदारी के लिए किसी गैर मामूली रकम की ज़रूरत पड़ती तो वालिदा माजिदा की खिदमत में दरख्वास्त करते और अपनी ज़रूरत बताते । वह इजाजत देतीं और दरख्वास्त मंजूर करतीं तो किताबें मंगवाते । ” गुरबा परवरीः इमामे अहले सुन्नत मौलाना अहमद रज़ा खां बरेलवी अलैहिर्रहमा खान्दानी रईस और साहिबे जाइदाद थे ।
आप ने यतीमों , बेवाओं , और दीगर गुरबा व मसाकीन के माहवार वज़ीफे मुकर्रर कर रखे थे । साइलों और नादारों के लिए आप का दरवाज़ा हर वक्त खुला रहता था । दूर दूर तक हाजत मन्दों की हाजत रवाई फ़रमाया करते । मौसमे सरमा के शुरू में हमेशा नादारों में रज़ाइयां तकसीम करना आप का मामूल था ।
एक वाकिआ मुलाहज़ा फरमाइए । मौसमे सरमा में एक मर्तबा नन्हें मियां साहब ( आलाहज़रत के बिरादरे खुर्द , मौलाना मुहम्मद रज़ा खां साहब ) कुद्देस सिर्रहू ने आला हज़रत की खिदमत में एक फ़र्द पेश की । आला हज़रत का हमेशा यह मामूल था कि सर्दियों में रज़ाइयां तैयार करवा कर गुरबा में तकसीम फ़रमाया करते थे । उस वक्त तक सब रज़ाइयां तकसीम हो चुकी थीं ।

एक साहब ने आला हज़रत से रज़ाई की दरख्वास्त की तो आप ने नन्हें मियां साहिब वाली वही फर्द अपने ऊपर से उतार कर उसे इनायत फरमा दी । इसी सिलसिले में एक और वाकिआ मुलाहज़ा फरमाइए । जनाब जकाउल्लाह खां साहब का बयान है
कि सर्दी का मौसम था , बाद नमाज़े मग़रिब आला हज़रत हस्बे मामूल फाटक में तशरीफ़ लाकर सब लोगों को रूखसत कर रहे थे खादिम को देखकर फरमायाः आप के पास रज़ाई नहीं है ? मैं खामोश हो रहा । उस वक्त आला हज़रत जो रज़ाई ओढ़े हुए थे वह खादिम को दे कर फरमाया इसे ओढ़ लीजिए ।

खादिम ने बसद अदब कदम बोसी की सआदत हासिल की और फ़रमाने मुबारक की तामील करते हुए वह रज़ाई ओढ़ ली ।
इस सिलसिले में मजीद एक वाकिआ पेशे ख़िदमत है जो मजकूरा बाला वाकिए के बाद पेश आया । इस वाकिए के दो तीन रोज़ बाद आला हज़रत के लिए नई रज़ाई तैयार होकर आ गई उसे ओढ़ते हुए अभी चन्द ही रोज़ गुज़रे थे कि एक रात मस्जिद में कोई मुसाफ़िर आया जिस ने आला हज़रत से गुज़ारिश की कि मेरे पास ओढ़ने के लिए कुछ नहीं है । आप ने वह नई रज़ाई उस मुसाफ़िर को अता फरमा दी । ” इमाम अहमद रज़ा खां बरैलवी कुद्देस सिर्रहू की सख़ावत व गुर्बा परवरी गिर्द व नवाह में मशहूर थी ।

Aala Hazrat Imam Ahmed Raza Khan رضي الله عنه Faazil e Bareilly Sharif ki muqaddas zindagi in Hindi, Life of aalahazrat

इस बारे में आप के सवानेह निगार मौलाना बदरूद्दीन अहमद मद्दा जिल्लहु यूं रकमतराज़ हैं ।
काशानए अकदस से कोई साइल खाली वापस न होता । बेवगान की इमदाद और ज़रूरतमन्दों की हाजत रवाई के लिए आप की जानिब से माहवार रकमें मुकर्रर थीं और यह इमदाद सिर्फ मकामी लोगों के लिए ही न थी बल्कि बैर व नजात में बज़रिया मनी आर्डर इमदादी रकम रवाना फ़रमाया करते ।
” दूर दराज़ की इमदाद के सिलसिले में एक अजीब वाकिआ पेशे ख़िदमत है । एक दफ़ा मदीना तैयबा से एक शख्स ने पचास रूपये तलब किए इत्तिफाक ऐसा हुआ कि आला हज़रत कुद्देस सिर्रहू के पास उस वक़्त एक रूपया भी नहीं था । आला हज़रत ने बारगाहे रिसालत में इल्तिजा की कि हुजूर मैं ने कुछ बन्दगाने खुदा के महीने ( माहवार वज़ीफे ) आप की इनायत के भरोसे पर अपने ज़िम्मे मुकर्रर कर लिए हैं , अगर कल पचास रूपये का मनी आर्डर कर दिया गया तो बर वक्त हवाई डाक से पहुंच जाएगा । यह रात आप ने बड़ी बेचैनी से गुज़ारी । अलस्सुबह एक सेठ साहिब हाज़िरे बारगाह हुए और मौलवी हस्नैन रज़ा खां साहब के ज़रिए मुबल्लिग इक्कावन रूपये बतौरे नज़रानए अकीदत हाज़िरे ख़िदमत किए ।
जब मौलवी साहब मौसूफ ने इक्कावन रूपये आला हज़रत कुद्देस सिर्रहू की ख़िदमत में जाकर पेश किए तो आप पर रिक्क़त तारी हो गई और मजकूरा बाला ज़रूरत का इन्किशाफ़ फ़रमाया , इरशाद हुआ यह यक़ीनन सरकारी अतीया है । इस लिए कि इक्कावन रूपये के कोई माना नहीं सिवाए इसके कि पचास भेजने के लिए फीस मनी आर्डर भी तो चाहिए । चुनांचे उसी वक़्त मनी आर्डर का फार्म भरा गया और डाक खाना खुलते ही मनी आर्डर रवाना कर दिया गया । इमाम अहमद रज़ा बरेलवी की सखावत का यह सिलसिला हर वक्त • जारी रहता था
इधर आया और उधर मसारिफे ज़रूरिया और गुर्बा में तकसीम हो गया । बाज़ औकात तो हवाइजे ज़रूरिया के लिए एक पैसा तक पल्ले नहीं रहता था , हालांकि साहबे जाइदाद और खान्दानी रईस थे । सखावत की इन्तिहा मालूम करने की ग़र्ज से मुजद्दिदे हाज़िरा कुद्देस सिर्रहू के अव्वलीन सवानेह निगार और आप के ख़लीफ़ए अरशद मलेकुल उलमा अल्लामा ज़फरूद्दीन बिहारी अलैहिर्रहमा का हैरत अंगेज़ इन्किशाफ़ मुलाहेज़ा हो ।
एक मर्तबा ऐसे ही मौका पर तकसीम करते हुए फ़रमाया कि कभी मैं ने एक पैसा ज़कात का नहीं दिया । और यह बिल्कुल सही इरशाद फ़रमाया कि हुजूर पर ज़कात फर्ज ही नहीं हुई थी । ज़कात फर्ज़ तो जब हो कि मिकदारे निसाब उनके पास साले तमाम तक रहे और यहां तो यह हाल था कि एक तरफ़ से आया , दूसरी तरफ गया । इमाम अहले सुन्नत ने इस अदीमुल मिसाल तरीके पर गुर्बा परवरी का काम जारी रखा ।
जो कुछ हासिल हुआ , उम्र भर यतीमों , बेवाओं , अपाहिजों , मिस्कीनों और नादारों पर लुटाते रहे । हवाइजे ज़रूरिया , ख़िदमत व इशाअते दीन और मेहमान नवाज़ी के बाद जो कुछ था सब गरीबों के लिए था । दमे वापसी भी आपने गरीबों को फरामोश नहीं किया बल्कि फुकरा के बारे में अपने अज़ीज़ व अकारिब को यूं वसीयत फ़रमाते हैं । ‘
फातिहा के खाने से अगनिया को कुछ न दिया जाए सिर्फ फुकरा को दें और वह भी ऐजाज़ और ख़ातिर दारी के साथ , न झिड़क कर ।
ग़र्ज़ कोई बात खिलाफ़े सुन्नत न हो …. ..अइज़्ज़ा से अगर बतय्यबे खातिर मुमकिन हो तो फ़ातिहा में हफ्ता में दो तीन बार इन अशिया से भी कुछ भेज दिया करें । दूध का बर्फ खाना साज़ अगर चे भैंस के दूध का हो , मुर्ग की बिरयानी , मुर्ग पुलाव ख्वाह बकरी का शामी कबाब , पराठे और बालाई , फीरनी , उड़द की फिरेरी दाल मा अदरक व लवाज़िम , गोश्त भरी कचोरियां , सेब का पानी , अनार का पानी , सोडे की बोतल , दूध का बर्फ , अगर रोज़ाना एक चीज़ हो सके यूं कर दिया करो जैसे मुनासिब जानो , मगर बतैयब ख़ातिर , मेरे लिखने पर मजबूर न हो । एक वह नाम निहाद मुसलेह , पीर और आलिमे दीन हैं
जिन की निगाहें दूसरों की जेबों पर होती हैं और एक आला हज़रत हैं कि उम्र भर गरीबों की सरपरस्ती करते रहे और आखरी वक़्त भी अपने घर से इतने लज़ीज़ और बेश कीमत खाने गरीबों को खिलाते रहने की वसीयत फरमा रहे हैं । यह है गुर्बा व मसाकीन से हमदर्दी का हकीकी जज़्बा और यह है
लन तनालुल बिर्रा हत्ता तुन्फिकू मिम्मा तुहिबना
पर अमल करके दिखाना और साथ ही यह ताकीद फरमा दी जाती है कि मेरे कहने पर मजबूर न होना बल्कि गरीबों का हक समझ कर उन्हें खिलाना पिलाना ।
साथ ही उन्हें हकीर समझकर झिड़कना नहीं होगा बल्कि मेहमानों की तरह खातिर दारी और ऐज़ाज़ व इकराम के साथ खिलाना चाहिए ।
जिस को गमे जहां में भी याद रहे गमे वे कसां मेरी तरफ से हमनी जाकर उसे सलाम दे
इस्लामी मसावातः मुसलमान सब भाई भाई हैं , सब बराबर हैं । गरीब और अमीर में , गोरे और काले में , बादशाह और फकीर में कोई फर्क नहीं है । यहां महमूद और अयाज बराबर हैं । दुनियावी लिहाज़ से सब यकसां हैं , हां इज़्ज़त व फजीलत का मेयार बारी तआला शानहू की नज़र में इन्ना अकरमकुम इन्दल्लाहे अतकाकुम है । यानी जो खुदा से बहुत ही डरने वाला है । वह अल्लाह तआला के नजदीक ज़्यादा इज़्ज़त वाला है । इसके बर अक्स गुर्बत व इमारत या अफ़सरी व मातहती के लिहाज़ से ज़िल्लत या इज़्ज़त का मेयार कायम करना सरासर गलत और लग्व है । शोब व कबाइल का फर्क सिर्फ पहचान के लिए है और अमीर व गरीब , शाह व गदा का इम्तियाज़ कारोबारे जहां की खातिर हिकमते इलाहिया है । एक मज़दूर अगर मुत्तकी है तो अल्लाह तआला के नज़दीक फासिक हुक्मरान से ज़्यादा इज्जत वाला है ।
इसी तरह एक नेकोकार गरीब व मिस्कीन आदमी उस मालदार से बेहतर है

जो बदकार या बेराह रौ हो । जो दौलत , इमारत , उहदा या इल्म की बदौलत खुद को दूसरों पर तरजीह दे अपने आप को औरों से बाला समझे दूसरों को अपने से घटिया जाने वह इस्लामी अखूवत व मसावात से ना आशना और मुतकब्बिर है हालांकि इरशादे बारी तआला यूं है : ला तुज़क्कू अन्फुसकुम बलिल्लाहु युज़क्की मैंयशाओ यानी तुम खुद को पाकबाज़ मत ठहराओ जबकि अल्लाह जिसे चाहे पाकबाज़ बनाता है । इस सिलसिले में आला हज़रत का अमल यह था ।

” एक साहब … ..खिदमत में हाज़िर हुआ करते थे । आला हज़रत भी कभी कभी उनके यहां तशरीफ ले जाया करते थे । एक
मर्तबा हुजूर उनके यहां तशरीफ़ फ़रमा थे कि उनके मुहल्ले का एक बेचारा गरीब मुसलमान टूटी हुई पुरानी चारपाई पर , जो सेहन के किनारे पर पड़ी थी , झिझकते हुए बैठा ही था कि साहबे खाना ने निहायत कड़वे तेवरों से उसकी तरफ़ देखना शुरू किया , यहां तक कि वह नदामत से सर झुकाए उठकर चला गया । हुजूर को साहबे खाना की इस मगरूराना रविश से सख्त तकलीफ पहुंची मगर कुछ फ़रमाया नहीं ।
कुछ दिनों के बाद वह हुजूर के यहां आए । हुजूर ने अपनी चारपाई पर जगह दी वह बैठे ही थे कि इतने में करीम बख़्श हज्जाम , हुजूर का ख़त बनाने के लिए आए । वह इस फिक्र में थे कि कहां बैलूं । आप ने फ़रमाया भाई करीम बख़्श ! खड़े क्यों हो ? मुसलमान आपस में भाई भाई हैं और उन साहब के बराबर बैठने का इशारा फ़रमाया । वह बैठ गए । फिर तो उन साहब के गुस्सा की यह कैफियत थी कि जैसे सांप फुन्कारें मारता है और फौरन उठकर चले गए . फिर कभी न आए ।
खिलाफे मामूल जब अरसा गुज़र गया तो आलाहज़रत ने फ़रमाया कि अब फलां साहब तशरीफ़ नहीं लाते हैं । फिर खुद ही फ़रमायाः मैं भी ऐसे मुतकब्बिर और और मग़रूर शख्स से मिलना नहीं चाहता । अहादीस पर यकीनः “ यूं तो लाखों उलमा मौजूद हैं जो अहादीस पर कमाले यकीन के मुद्दई होंगे लेकिन इमाम अहलेसुन्नत की अपने आका व मौला सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के इरशादाते आलिया पर यकीन की शान मुलाहिज़ा हो ,
खुद फ़रमाते हैं : । मेरे पास इन अमलियात के ज़खाइर भरे पड़े हैं लेकिन बिहमदिल्लाह आज तक कभी इस तरफ़ ख्याल भी न किया , हमेशा उन दुआओं पर जो अहादीस में इरशाद हुई अमल किया , मेरी तो तमाम मुश्किलात इन्हीं से हल होती रहती हैं । १२६५ हि . / १८७८ ई ० में जब आप वालिदैन करीमैन के साथ पहली मर्तबा हज्जे बैतुल्लाह और जियारते रौज़ए मुतहहरा के शर्फ से मुशरर्फ हुए तो वापसी में बवक्ते तूफ़ान इसी यकीन का अजीब मंज़र सामने आया , चुनांचे फरमाते हैं ।
” पहली बार की हाज़िरी वालिदैन माजिदैन रहमतुल्लाह तआला अलैहिमा के हमराह रेकाब थी । उस वक़्त मुझे तेईसवां साल था । वापसी में तीन दिन तूफ़ाने शदीद रहा था । उसकी तफ़सील में बहुत तूल है । लोगों ने कफ़न पहन लिए थे । हज़रत वालिदा माजिदा का इज़तिराब देखकर , उनकी तस्कीन के लिए बेसाखता मेरी ज़बान से निकला कि आप इतमीनान रखें ,
खुदा की कसम यह जहाज़ न डूबेगा । यह कसम मैं ने हदीस ही के इतमीनान पर खाई थी , जिस हदीस में कशती पर सवार होते वक्त गर्क से हिफ़ाज़त की दुआ इरशाद हुई है , मैं ने वह दुआ पढ़ ली थी , लिहाज़ा हदीस के वादए सादिका पर मुतमईन था ।
फिर क़सम के निकल जाने से खुद मुझे अन्देशा हुआ और मअन हदीस याद आई मैंयतअल्ला अलल्लाहे युकज़्ज़िबुहू हज़रते इज्जत की तरफ रूजू की और सरकारे रिसालत से मदद मांगी । अल्हमदुलिल्लाह कि वह मुखालिफ़त हवा कि तीन दिन से बशिद्दत चल रही थी दो घड़ी में बिल्कुल मौकूफ हो गई
और जहाज़ ने नजात पाई । इसी सिलसिले में एक सबक़ आमोज़ वाकिआ इमाम अहले सुन्नत के मामूलात से और मुलाहज़ा फरमाइए । यह वाकिआ अल्लामा मलेंकुल उलमा ज़फरूद्दीन बिहारी अलैहिर्रहमा के सामने पेश आया , नौबत कहां तक पहुंची आला हज़रत के लफ़ज़ों में मुलाहज़ा फरमाइए । उसी दिन मसूढ़ों में वरम हो गया और इतना बढ़ा कि हलक और मुंह बिल्कुल बन्द हो गया । मुशकिल से थोड़ा दूध हलक से उतारता था और उसी पर इकतिफा करता ,
बात बिल्कुल न कर सकता था . यहां तक कि केराते सरीआ भी मयस्सर न थी । सुन्नतों में भी किसी की इकतिदा करता । उस वक्त मज़हबे हन्फी में अदमे जवाज़ केरात खल्फुल इमाम का यह नफीस फायदा मुशाहिदा हुआ । जो कुछ किसी से कहना होता . लिख देता ।
बुखार बहुत शदीद और कान के पीछे . गिलटियां । मेरे मंझले भाई मरहूम ( यानी मौलाना हसन रज़ा खा ) एक तबीब को लाए , उन दिनों बरैली में मर्जे ताऊन बशिद्दत था । उन साहब ने बगौर देखकर सात आठ मर्तबा कहा यह वही है , वही है , यानी ताऊन ।
मैं बिल्कुल कलाम न कर सकता था , इस लिए उन्हें जवाब न दे सका , हालांकि मैं खूब जानता था कि यह गलत कह रहे हैं कि मुझे ताऊन है और न इन्शाअल्लाह हुल अज़ीज़ कभी होगा , इस लिए कि मैं ने ताऊन ज़दा को देखकर बारहा वह दुआ पढ़ ली है जिसे हुजूर सैयदे आलम सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया ।
जो शख्स किसी बला रसीदा को देखकर यह दुआ पढ़ेगा , उस बला से महफूज़ रहेगा । वह दुआ यह है ।
अलहमदुलिल्लाहिल्लज़ी आफानी मिम्मा अबतलाका बिही व फज्जलनी अला कसीरिम मिम्मन खलका तफजीलन ।
जिन जिन अमराज़ के मरीज़ों , जिन जिन बलाओं के मुब्तलाओं को देखकर मैंने इसे पढ़ा , अल्हमदुलिल्लाह कि आज तक उन सब से महफूज हूं और बिऔनिही तआला हमेशा रहूंगा । अलबत्ता एक बार इसे पढ़ने का मुझे अफसोस है । मुझे नौ उम्री में अक्सर आशोबे चश्म हो जाया करता था । बवजहे शिद्दत मिजाज़ बहुत तकलीफ देता था । 16 सल की उम्र हो गई और रामपुर जाते हुए एक शख्स को दर्दे चश्म में मुन्तला देखकर यह दुआ पढ़ी , जब से अब तक आशोबे चश्म फिर नहीं हुआ ।
उसी ज़माना में सिर्फ दो मर्तबा ऐसा हुआ कि एक आंख कुछ दबती मालूम हुई . दो चार दिन बाद वह साफ हो गई । दूसरी दबी मगर वह भी साफ हो गई मगर दर्द , खटक , सुर्सी कोई तकलीफ असलन किसी किस्म की नहीं । अफसोस इस लिए कि हुजूर सरवरे आलम सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम से हदीस है ।
तीन बीमारियों को मकरूह न जानो । जुकाम कि उसकी वजह से बहुत सी बीमारियों की जड़ कट जाती है । खुजली ( खारिश ) कि उस से अमराजे जिल्दीया जज़ाम वगैरह का इनसिदाद होता है । आशोबे चश्म नाबीनाई को दफा करता है । अपने आका व मौला सल्लल्लाहु तआला अलैहे वसल्लम के इरशादाते ग्रामी पर इमामे अहले सुन्नत कुद्देस सिर्रहू को किस दर्जा यकीन था , इस सिलसिले में बाज़ वाकेआत मुलाहज़ा फरमाइये ,
एक ईमान अफरोज़ वाकिआ और पेशे खिदमत है । ‘ जुमादिल ऊला 1300 हिजरी में बाज़ मुहिम तसानीफ के सबब एक महीना बारीक खत की किताबें शबाना रोज अलल इत्तिसाल देखना हुआ । गर्मी का मौसम था , दिन को अन्दर के दालान में किताब देखता और लिखता । अट्ठाईसवां साल था , आंखों ने अन्धेरे का ख्याल न किया । एक रोज़ शिद्दते गर्मी के बाइस दोपहर को लिखते लिखते नहाया ,
सर पर पानी पड़ते ही मालूम हुआ कि कोई चीज़ सर से उतर कर दाहिनी आंख में उतर आई । बायें आंख बन्द करके दाहनी से देखा तो औसत शै मरई में एक सियाह सा हलका नज़र आया , उसके नीचे शै का जितना हिस्सा हुआ वह नासाफ और दबा हुआ मालूम होता । यहां एक डाक्टर उस ज़माना में इलाजे चश्म में बहुत सर बर आवरदा था । सैण्डरसन या अन्डरसन कुछ ऐसा ही नाम था । मेरे उस्ताद जनाब मिर्जा गुलाम कादिर साहिब रहमतुल्लाह अलैहि ने इसरार फरमाया कि उसे आंख दिखाई जाए ।
इलाज करने न करने का इख्तियार है डाक्टर ने अन्धेरे कमरे में सिर्फ आंख पर रौशनी डाल कर आलात से बहुत देर तक बगौर देखा और कहा कि कसरते किताब बीनी से कुछ पेवस्त आ गई है , पन्द्रह दिन किताब न देखिए । मुझसे पन्द्रह घड़ी भी किताब न छूट सकी ।

Aala Hazrat Imam Ahmed Raza Khan رضي الله عنه Faazil e Bareilly Sharif ki muqaddas zindagi in Hindi, Life of aalahazrat

हकीम सैयद मौलवी अशफ़ाक हुसैन साहब मरहूम सहसवानी डिप्टी कलक्टर तबाबत भी करते थे और फकीर के मेहरबान थे , फरमायाः मुकद्दमए नुजूले आब है बीस बरस बाद ( खुदा न करदा ) पानी उतर आयेगा । मैं ने इलतिफात न किया और नुजूले आब वाले को देखकर वही दुआ पढ़ ली और अपने महबूब सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के इरशादे पाक पर मुतमईन हो गया ।
१३१६ हि . में एक और हाज़िक तबीब के सामने ज़िक्र हुआ । कहा चार बरस बाद ( खुदा नख्वास्ता ) पानी उतर आयेगा । इनका हिसाब डिप्टी साहब के हिसाब से बिल्कुल मुवाफिक आया । उन्होंने बीस बरस बाद कहे थे , इन्हों ने सोला बरस बाद चार बरस कहे । मुझे महबूब सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के इरशाद पर वह एतमाद न था कि तबीबों के कहने से मुआज़ल्लाह मुतज़लज़ल होता । अल्हम्दुलिल्लाह बीस दर किनार तीस बरस से ज़ायद गुज़र चुके हैं और वह हल्का ज़र्रह भर न बढ़ा , न बिऔनिही तआला बढ़ेगा न मैं ने कुतुब बीनी में कभी कमी की , न कमी करूंगा ।
यह मैं ने इस लिए बयान किया कि यह रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के दाइम व बाकी मोजिज़ात हैं जो आज तक आंखों से देखे जा रहे हैं और कयामत तक अहले ईमान मुशाहिदा करेंगे । मुसलमान करना आम तौर पर यही किया जाता है
कि जब कोई गैर मुस्लिम किसी मुसलमान पर अपना इरादा ज़ाहिर करता है कि वह इस्लाम की हक्कानियत का काइल होकर मुसलमान होना चाहता है तो उसे किसी आलिमे दीन के पास ले जाया जाता है , इस में कई घंटे सर्फ हो जाते हैं हालांकि जो मुसलमान भी किसी गैर मुस्लिम के ऐसे इरादे पर मुत्तला हो उस पर फ़र्ज़ है कि उसी वक़्त उसे कल्मए शहादत पढ़ा दे और अगर हो सके तो इतना कहलवा दे कि
” अल्लाह एक है और इबादत के लायक सिर्फ उसी की जात है और हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम , अल्लाह तआला के सच्चे और आखरी रसूल हैं ।
” इसके बाद किसी आलिमे दीन के पास ले जाकर ऐलाने आम के साथ मुसलमान करवाए । इमामे अहले सुन्नत की ज़िन्दगी का एक वाकिआ मुलाहज़ा होः ” जनाब सैयद अय्यूब अली साहब ही का बयान है कि एक रोज़ एक मुसलमान किसी गैर मुस्लिम को अपने हमराह लाते हैं और अर्ज करते हैं कि यह मुसलमान होना चाहते हैं । फरमाया कि कलिमा पढ़वा दिया है । उन्होंने कहा कि अभी नहीं । हुजूर ने बिला ताखीर व तसाहुल …… गैर मुस्लिम को पढ़ने का इशारह करते हुए यह अल्फाज़ तल्कीन फरमाए
ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह । अल्लाह एक है , उसके सिवा कोई माबूद नहीं और मुहम्मद सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम उसके सच्चे रसूल हैं , मैं उनपर ईमान लाया । मेरा दीन मुसलमानों का दीन है । उसके सिवा जितने माबूद हैं सब झूटे हैं । अल्लाह के सिवा किसी की पूजा नहीं है । जिलाने वाला एक अल्लाह है । मारने वाला एक अल्लाह है । पानी बरसाने वाला एक अल्लाह है । रोज़ी देने वाला एक अल्लाह है । सच्चा दीन एक इस्लाम है , और जितने दीन हैं सब झूटे हैं ।
इस के बाद मिक़राज़ ( कैंची ) से सर की चोटी काटी और कटोरे में पानी मंगवा कर थोड़ा सा खुद पिया बाकी उसे दिया और उससे जो बचा वह हाज़िरीन मुसलमानों ने थोड़ा थोड़ा पिया । इस्लामी नाम अब्दुल्लाह रखा गया । बादहू जो साहब लेकर आए थे उन्हें फ़हमाइश की कि जिस वक्त कोई इस्लाम में आने को कहे , फौरन कलिमा पढ़ा देना चाहिए कि अगर कुछ भी देर की तो गोया उतनी देर उसके कुफ पर रहने की मआज़ल्लाह रज़ा मन्दी है । आप को कलिमा पढ़वा देना चाहिए था ,
उसके बाद यहां लाते या और कहीं ले जाते । उन साहब ने यह सुनकर दस्त बस्ता अर्ज़ किया कि हुजूर ! मुझे यह बात मालूम न थी । मैं तौबा करता हूं । हुजूर ने फ़रमाया अल्लाह माफ़ करे , कलिमा पढ़ लीजिए । उन्होंने कलिमा पढ़ा और सलाम करके चले गए ।
अखलाके जलालीः
खुद साख्ता तहज़ीब के अलमबरदार और सुल्हे कुल्लीयत के पुजारियों ने जिस चीज़ का नाम तहज़ीब और अखलाके हसना रखा हुआ है कि खुदा और रसूल ( जल्ला जलालहू व सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ) के गुस्ताखों और मुसलमानों को एक ही नज़र से देखा जाए , सब के साथ एक जैसा बरताव किया जाए क्योंकि सब मुसलमान हैं और सारे भाई भाई हैं । यह ऐसे हज़रात के नज़दीक ख्वाह कितना ही काबिले तारीफ तर्जे अमल हो लेकिन इस्लामी तहज़ीब हरगिज़ नहीं है ।
क्योंकि यह तरीके कार अल हुब्बु फ़िल्लाहे वल बुग्जु फ़िल्लाहे के खिलाफ है ।
आइए इमाम अहमद रज़ा ख़ां बरैलवी का अखलाक मुलाहज़ा हो । आप की ज़ात अल हब्बु फिल्लाहे वल बुग्जु फिल्लाहे की जिन्दा तस्वीर थी ।
अल्लाह व रसूल ( जल्ला जलालहू व सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ) से मोहब्बत रखने वाले को अपना अज़ीज़ समझते और अल्लाह व रसूल ( जल्ला जलालहू व सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ) के दुशमन को अपना दुशमन जानते । अपने मुखालिफ से कभी कज ख़ल्की से पेश न आए ।
खुश अखलाकी का यह आलम था कि जिस से एक बार कलाम फरमाया उसके दिल को गरवीदा बना लिया । कभी दुश्मन से भी सख्त कलामी न फ़रमाई । हमेशा हिल्म से काम लिया ,
लेकिन दीन के दुशमन से कभी नर्मी न बरती ।
चुनांचे एक दफा हज़रत नन्हें मियां मौलाना मुहम्मद रज़ा ने असर के बाद आप की खिदमत में अर्ज की कि हैदराबाद दकन से एक राफ़िज़ी सिर्फ आप की ज़ियारत के लिए आया है और अभी हाज़िरे ख़िदमत होगा । तालीफे कल्ब के लिए उस से बात चीत कर लीजिएगा ।
दौराने गुफ़्तगू ही में वह राफ़िज़ी भी आ गया । हाज़िरीने मजलिस का बयान है कि आला हज़रत उसकी तरफ़ बिल्कुल मुतवज्जेह न हुए यहां तक कि नन्हें मियां साहब ने उसको कुर्सी पर बैठने का इशारह किया , वह बैठ गया । आला हज़रत के गुफ्तगू न फ़रमाने से उसको भी कुछ बोलने की जुर्रत न हुई ।
थोड़ी देर बैठ कर चला गया । उसके जाने के बाद नन्हें मियां ने आला हज़रत को सुनाते हुए कहा कि इतनी दूर से वह सिर्फ मुलाकात के लिए आया था , अखलाकन तवज्जोह फ़रमा लेने में क्या हर्ज़ था ? हुजूर आला हज़रत ने जलाल की हालत में इरशाद फ़रमाया कि मेरे अकाबिर पेशवाओं ने मुझे यही अखलाक बताया है । फिर आप ने बयान फ़रमाया कि अमीरूल मोमिनीन उमर फारूके आज़म रज़ियल्लाहु तआला अन्हु मस्जिदे नबवी शरीफ से तशरीफ़ ला रहे हैं ।
राह में एक मुसाफ़िर मिलता है और सवाल करता है कि मैं भूका हूं । आप साथ चलने का इशारा फ़रमाते हैं । वह पीछे पीछे काशानए अकदस तक पहुंचता है । अमीरूल मोमिनीन खादिम को खाना लाने के लिए हुक्म देते हैं । खादिम खाना लाता है और दस्तरख्वान बिछा कर सामने रखता है । खाना खाने में वह मुसाफ़िर बद मज़हबी के कुछ अल्फाज़ ज़बान से निकालता है ।
अमीरूल मोमिनीन ख़ादिम को हुक्म फ़रमाते हैं कि खाना उसके सामने से फौरन उठाओ और उसका कान पकड़ कर बाहर कर दो । खादिम उसी दम हुक्म बजा लाता है । खुद हुजूर सैयदे आलम सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ने मस्जिदे नबवी शरीफ से नाम लेकर मुनाफिकीन को निकलवा दिया
उखरूज या फलानु फइन्नका मुनाफिकुन । ऐ फलां मस्जिद से निकल जा , इस लिए कि तू मुनाफ़िक
सोने का अन्दाज़ः
शराबे मोहब्बत से मखमूर रहने वालों के तौर तरीके दूसरों से कुछ निराले ही होते हैं । आला हज़रत के सोने का तरीका अल्लामा बदरूद्दीन अहमद साहब ने यूं रकम फ़रमाया है । आप के खादिम का बयान है कि आला हज़रत 24 घंटे में सिर्फ देढ़ दो घंटे आराम फरमाते और बाकी तमाम वक्त तस्नीफ़ व कुतुब बीनी और दीगर खिदमाते दीनिया में सर्फ फरमाते और हमेशा बशक्ले नामे अकदस मुहम्मद सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम सोया करते ।
इस तरह कि दोनों हाथ मिला कर सर के नीचे रखते और पांव समेट लेते जिस से सर मीम , कुहनियां , हे , कमर मीम , पांव दाल बन कर गोया नामे पाक मुहम्मद का नक्शा बन जाता सल्लल्लाहु अलैहि व अला आलिही वसल्लम । अल्लामा मुहम्मद साबिर नसीम बस्तवी ने इस सिलसिले में यूं वज़ाहत फ़रमाई है ।
जब आप आराम फरमाते तो दाहिनी करवट , इस तरह पर कि दोनों हाथ मिला कर सर के नीचे रख लेते और पाए मुबारक समेट लेते । कभी कभी खुद्दाम हाथ पांव दाबने बैठ जाते और अर्ज़ करते । हुजूर ! दिन भर काम करते करते थक गए होंगे , ज़रा पाए मुबारक दराज फरमा लें तो हम दर्द निकाल दें । इसके जवाब में फरमाते कि पांव तो क़ब्र के अन्दर फैलेंगे ।
एक अर्सा तक आप के इस हैयत पर आराम फरमाने का मकसद मालूम नहीं हुआ और न आप से पूछने की कोई हिम्मत ही कर सका । आखिर कार इमाम अहले सुन्नत कुद्दिस सिर्रहू के इस तरह सोने का राज़ आला हज़रत के ख़लफे अकबर हुज्जतुल इस्लाम मौलाना हामिद रजा खां रहमतुल्लाह अलैहि ने ज़ाहिर फ़रमाया कि सोते वक़्त यह फ़ना फ़िरसूल अपने जिस्म को इस तरह तरकीब देकर सोते हैं कि लफज़े मुहम्मद बन जाता है ।
अगर इसी हालत में पैगामे अजल आ जाए तो ज़हे नसीब वरना दूसरा फायदा तो हासिल , व हुवा हाज़ाः इस तरह सोने से फायदा यह है कि सत्तर हज़ार फरिशते रात भर इस नामे मुबारक के गिर्द दरूद शरीफ़ पढ़ते हैं
ला अन्हु पर बहुत से उलमाए किराम की मुहरें और दस्तख़त थे । हज़रत ने सोने वाले के नामए आमाल में लिखा जाता है । सोते वक़्त जब आप दोनों हाथों को मिला कर सर के नीचे रखते तो उंगलियों का अन्दाज़ अजीब होता । अंगूठे को अंगूश्ते शहादत के वस्त पर रखते और बाकी उंगलियां अपनी असली हालत पर रहतीं । इस तरह उंगलियों से लफ़्ज़ अल्लाह बन जाता ।
गोया सोते वक्त दोनों हाथों की उंगलियों से अल्लाह और जिस्म से मुहम्मद लिख कर सोते । हुज्जतुल इस्लाम मौलाना हामिद रज़ा खां अलैहिर्रहमा ने आप की इन वालिहाना अदाओं के पेशे नज़र ही तो कहा था कि
नामे खुदा है हाथ में
नामे नबी है ज़ात में
मुहरे गुलामी है पड़ी
लिखे हुए हैं नाम दो
 Aala Hazrat Imam Ahmed Raza Khan رضي الله عنه Faazil e Bareilly Sharif ki muqaddas zindagi in Hindi, Life of aalahazrat    चाँदी की कुर्सीः
रियासते रामपुर में इस किस्म का वाकिआ पेश आया था , जो इस तरह मन्कूल है । ” चुनांचे नवाब साहब ने आला हज़रत रज़ियल्लाहु को बुलवाया और हुजूर अपने खुसर जनाब शैख़ तफज्जुल हुसैन के हमराह रामपुर तशरीफ ले गए ।
जिस वक्त आप नवाब के यहां पहुंचे और नवाब साहब ने आप की जियारत की तो बहुत मुतअज्जिब हुए लेकिन आप के इल्मी जाह व जलाल के काइल हो चुके थे इस लिए आप के इन्तिहाई ऐजाज़ व इकराम में चाँदी की कुर्सी पेश की । आप ने फौरन इरशाद फ़रमाया कि मर्द के लिए चाँदी का इस्तेमाल हराम है ।
इस जवाब से नवाब साहब कुछ खफ़ीफ़ हुए और आप को अपने पलंग पर जगह दी और आप से गायते लुत्फ़ व मोहब्बत से बातें करने लगे । नवाब साहब किस तरह आला हज़रत के इल्मी जाह व जलाल के काइल हुए और क्यों आप की जियारत का शौक़ पैदा हुआ ?
इस का सबब एक फ़तवा है । उस फ़तवे का वाकिआ इस तरह मुन्कूल है । ” हज़रत मौलाना नकी अली खां साहब का नाम सुन कर एक साहब रामपुर उनकी खिदमत में हाज़िर हुए और मौलाना इरशाद हुसैन साहब मुजद्दिदी रज़ियल्लाहु तआला अन्हु का फतवा पेश किया , जिस फरमाया कि कमरे में मौलवी साहब हैं , उनको दे दीजिए जवाब लिख
देंगे वह साहब कमरे में गए और वापस आकर अर्ज़ किया ! कमरे में मौलवी साहब नहीं हैं ।
फ़क़त एक साहबज़ादे हैं । हज़रत ने फ़रमाया उन्हीं को दे दीजिए , वह लिख देंगे । उन्होंने अर्ज़ किया हज़रत ! मैं तो आप का शुहरा सुनकर आया हूं आप ने फ़रमाया आजकल वही फ़तवा लिखा करते हैं , उन्हीं को दे दीजिए । बिल आख़िर उन साहब ने आला हज़रत को फ़तवा दे दिया । हुजूर ने जो उस फ़तवा को मुलाहज़ा फ़रमाया तो जवाब दुरूस्त न था ।
आप ने उस जवाब के खिलाफ़ जो बात हक थी लिख कर वालिद माजिद साहबे किब्ला की खिदमत में पेश किया । इन्होंने उसकी तस्दीक फ़रमा दी । वह साहब उस फ़तवा को लेकर रामपुर पहुंचे और नवाब रामपुर ने उसे अज़ अव्वल ता आख़िर देखा , तो मुजीबे अव्वल मौलाना इरशाद हुसैन साहब को बुलाया ।
आप तशरीफ़ लाए तो वह फ़तवा आप की खिदमत में पेश किया । मौलाना ने हक गोई व सिक पसंदी का सुबूत देते हुए साफ़ साफ़ इरशाद फरमाया कि हकीकत में वही जवाब सही है जो बरैली शरीफ़ से आया है । नवाब साहब ने कहा । फिर इतने उलमा ने आप के जवाब की तस्दीक किस तरह कर दी ?
मौलाना ने फरमाया कि तस्दीक करने वाले हज़रात ने मुझ पर मेरी शोहरत की वजह से ऐतमाद किया वरना हक वही है जो उन्हों ने लिखा है । इस वाकिआ से फिर यह मालूम करके कि आला हज़रत की उम्र उन्नीस बीस साल की है , नवाब साहब मुतहैयर रह गए और उनको आप की मुलाकात का शौक पैदा हुआ ।
यह वाकिआ हयाते आला हजरत के सफा १३३ पर भी मुफ्ती एजाज़ वली खां साहब मरहूम से मन्कूल है ।
लेकिन मालूम नहीं मुफ़्ती साहिब ने किस मसलेहत के तहत उस वक्त इमाम अहमद रज़ा खां कुद्देस सिर्रहू की उम्र का चौदहवां साल बताया हालांकि उस वक़्त आप की उम्र कम अज़ कम उन्नीस बीस साल थी जैसा कि अल्लामा ज़फ़रूद्दीन बिहारी अलैहिर्रहमा ने सफा १३४ , १३५ पर तशरीह फ़रमाई है । यह वाकिआ आला हज़रत अलैहिर्रहमा की शादी के बाद पेश आया क्योंकि आला हज़रत को उनके खुसर (ससुर) साहब के ज़रिए बुलवाया गया था और
शादी आप की १२६१ हि . / १८८५ ई ० में हुई और उस वक्त आप की उम्र उन्नीस साल थी । चाँदी की कुर्सी पेश करने का मुफ्ती एजाज़ वली खां साहब ने भी अपने बयान में ज़िक्र किया है ।
दाहिना हाथः
अक्सर हज़रात दाहिने और बायें हाथ के कामों का फ़र्क मलहूज़ नहीं रखते । इमामे अहले सुन्नत ने इस बारे में अमली तौर पर मुसलमानों को इनका दायरा कार बताया , चुनांचे इस सिलसिले में मन्कूल है । नाक साफ करने और इस्तिंजा फरमाने के सिवा आप के हर काम की इब्तिदा सीधे ही जानिब से होती थी । चुनांचे अमामा मुबारक का शिमला सीधे शाना पर रहता , उस के पेच सीधी ( दायें ) जानिब होते और उसकी बन्दिश इस तौर पर होती कि बायें दस्ते मुबारक में बन्दिश और दाहिना दस्ते मुबारक पेशानी पर हर पेच की गिरफ्त करता था ।
इस सिलसिले में अल्लामा बदरूद्दीन अहमद साहब ने आला हजरत के तर्जे अमल की यूं वज़ाहत फ़रमाई है । अगर किसी को कोई चीज़ देते और वह बाँयां हाथ बढ़ाता तो फौरन दस्ते मुबारक रोक लेते और फरमाते कि दाहिने हाथ में लो , बायें हाथ में शैतान लेता है ।
बिस्मिल्लाह शरीफ का अदद 786 लिखने का आम दस्तूर यह है कि पहले 7 लिखते हैं फिर 8 , उसके बाद 6 लिखते हैं लेकिन आप पहले 6 फिर 8 तब 7 तहरीर फ़रमाते यानी आदाद को भी दाहिनी जानिब से लिखते
बाज़ मुबारक आदतेंः 
कहना तो बहुत आसान है लेकिन छोटी छोटी बातों के ख्याल रखना और मुस्तहसन आदात व अतवार का खूगर बनना खुदा के बरगुज़ीदा बन्दों ही से मख्सूस है ।
आला हज़रत की बाज़ आदतें मुलाहज़ा हों । ‘ बशक्ले नामे अकदस ( मुहम्मद ) सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम इसतेराहत फरमाना , ठट्ठा न लगाना , जमाई आने पर उंगली दातों में दबा लेना और कोई आवाज़ न होना , कुल्ली करते वक्त दस्ते चप रीश मुबारका पर रख कर , खमीदा सर होकर पानी मुंह से गिराना , किब्ला की तरफ रूख करके कभी न थूकना , न किब्ला की तरफ़ पाए मुबारक दराज़ करना
नमाज़े पंजगाना मस्जिद में बा जमाअत अदा करना , फ़र्ज़ नमाज बा अमामा पढ़ना , बगैर सूफ पड़ी दवात से नफ़रत करना . यूंही लोहे के कलम से इजतिनाब करना , खत बनवाते वक्त अपना कंघा शीशा इस्तेमाल फ़रमाना , मिस्वाक करना , सरे मुबारक में फलील डलवाना । ”
मशागिलः
आज तो उलमाए किराम की ज़िन्दगियों में भी रंगीनी पैदा हो गई है । बाज़ तो ऐसे भी हैं जिन्हें दर्स व तदरीस और खिताबत के बाद तकरीर फ़रोशी से इतनी फुर्सत ही नहीं मिलती कि सारी ज़िन्दगी में एक दो किताबें लिख जायें । इमामे अहले सुन्नत के मशागिल मुलाहज़ा हों ,
क्या उन के हां तकरीर या फ़तवा या तावीज़ फ़रोशी फटकी भी थी ? दिन रात उनका मशग़ला तस्नीफ व तालीफ़ , फतवा नवेसी और ख़िदमते दीन था और यह सब कुछ लिवजहिल्लाह था । अल्लामा बदरूद्दीन अहमद ने इमाम अहमद रज़ा खां बरेलवी के मशागिल का तजकिरा यूं किया है । ” तस्नीफ़ व तालीफ . कुतुब बीनी , फ़तवा नवेसी और औराद व अशगाल के ख्याल से खलवत में तशरीफ़ रखते पांचों नमाज़ों के वक्त मस्जिद में हाज़िर होते
और हमेशा नमाज़ बा जमाअत अदा फ़रमाया करते और बावजूद कि बेहद हारी मिज़ाज थे मगर कैसी गर्मी क्यों न हो हमेशा अमामा और अंगरखे के साथ नमाज़ पढ़ा करते थे ,
खुसूसन फर्ज तो कभी सिर्फ टोपी और कुर्ते के साथ अदा न किया ।
गेज़ाः
आला हज़रत अज़ीमुल बरकत एक तरफ तो हमा वक्त तस्नीफ़ व तालीफ़ और फतवा नेवसी और कुतुब बीनी में मशगूल रहते और दूसरी तरफ़ ज़ईफुल जुस्सा थे ,
यही वजह है कि साहबे हैसियत और रईस होने के बावजूद आप की खूराक महज़ इतनी थी जो सिर्फ ज़िन्दा रहने के लिए बमुशकिल काफ़ी हो सके ।
मसलनः ” आप की गेज़ा निहायत कलील थी । एक प्याली बकरी के गोश्त का शोरबा बगैर मिर्च के और एक या देढ़ बिस्कुट और वह भी रोज़ रोज़ नहीं , बल्कि बसा औकात इसमें भी नागा हो जाता था । अल्लामा ज़फ़रूद्दीन बिहारी रहमतुल्लाह अलैहि ने आप की आम
गेज़ा के बारे में यूं वज़ाहत फ़रमाई है : ” आला हज़रत कुद्देस सिर्रहू की आम गेज़ा रोटी , चक्की के पिसे हुए आटे और बकरी का कोरमा था । मल्फूजाते शरीफ से मालूम होता है कि ज्यादा से ज़्यादा खुराक एक चपाती थी , इसी तरह एक दो बिस्कुट और एक प्याली का शोरबा बराए नाम खूराक ही तो है ,
इस पर भी नागों का तुर्रह । रमज़ानुल मुबारक के मुकद्दस महीने की गेज़ा मुलाहज़ा होः ” मौलवी मुहम्मद हुसैन साहब मेरठी मूजिद तिल्सिमी प्रेस का बयान है कि . आला हज़रत बादे इफतार पान नोश फ़रमाते ,
शाम को खाना खाते मैं ने किसी दिन नहीं देखा । सहर को सिर्फ एक छोटे से प्याले में फीरनी और एक प्याली में चटनी आया करती थी , वह नोश फ़रमाया करते । एक दिन मैं ने दरयाफ्त किया कि हुजूर ! फीरनी और चटनी का क्या जोड़ ? फ़रमाया , नमक से खाना शुरू करना और नमक पर ख़त्म करना सुन्नत है , इस लिए यह चटनी आती है- ” ।
ख़िदमते इस्लाम की धुनः
वह भी उलमाए किराम हैं जिन्हें अपनी हर तस्नीफ में कसरते मशागिल और बेहद मसरूफ़ियात का तजकिरा करना इस लिए ज़रूरी होता है कि अगर यह रूकावट न होती तो वह मौजूए किताब पर तहकीकात के दरिया बहा देते । तकरीर के लिए ( अगर किराये पर न आये हों ) मुखलेसीन व मुहिबीन खींच कर ले आयें तो खुतबा के बाद ही मिसरा यह होगा कि तबीयत इन्तिहाई नासाज़ है महज़ फलां इबने फलां साहब के पासे खातिर से आना पड़ गया लेकिन एक इमामे अहले सुन्नत की ज़ाते गिरामी है कि जिस्मानी लिहाज़ से नहीफ व नातवां , सारी उम्र अमराजे मुज़म्मना के शिकार रहे .
दर्दे गुर्दा चौदह साल की उम्र से लाहिक , सर दर्द दायमी और बुखार तो गोया सफ़र व हज़र में रफ़ीके ज़िन्दगी या राहते जान था । इस के बावजूद उस नाबगए अस्र की दीनी खिदमात का अन्दाज़ा भी लगाना मुशकिल है ।
सुबूत के तौर पर एक वाकिया मुलाहज़ा होः ” मेरे ( मौलवी मुहम्मद हुसैन मेरठी के ) बरैली कयाम के ज़माना में हज़रत का मावुल जुबन हुआ जिसमें बीस मुसहिल होते हैं , मगर काम
( तस्नीफ़ व तालीफ़ का ) बराबर जारी रहा अज़ीज़ों ने यह देखकर मना किया मगर न माने । उन्होंने तबीब साहब से कहा कि मुसहिल के दिन भी बराबर लिखते हैं और करीबन बीस मुसहिल होंगे . आंखों को नुक्सान पहुंचने का अन्देशा है । तबीब साहब ने बहुत समझाया तो यह इरशाद फरमायाः अच्छा मुसहिल के दिन मैं खुद नहीं लिखूगा । दूसरों से लिखवा दिया करूंगा और गैर मुसहिल के दिन मैं खुद लिखूगा ।
तबीब साहब ने कहा कि इसको गनीमत समझो । उसका यह इन्तिज़ाम किया गया कि एक मकान में चन्द अलमारियां लगाकर उनमें किताबें रख दी गई । मुसहिल के दिन हज़रत उस मकान में तशरीफ़ ले गए और साथ सिर्फ मैं था । दरवाज़ा बन्द कर दिया गया । अब जो फ़तवा लिखाना होता उसका कुछ मज़मून लिखा कर मुझसे फ़रमाते कि अल्मारी में से फलां जिल्द निकालो । अक्सर किताबें मिसरी टाइप की कई जिल्दों में थीं । मुझ से फ़रमाते इतने सफ़हे लौट लो और फलां सफ़हा पर इतनी सतरों के बाद यह मज़मून शुरू हुआ उसे नक्ल कर दो ।
मैं वह फिकरा देख कर पूरा मज़मून लिखता और सख़्त मुतहैय्यर था कि वह कौन सा वक़्त मिला था कि जिस में सफा और सतरे गिन कर रखे गए थे । गर्ज़ ये कि उनका हाफ़िज़ा और दिमागी बातें हम लोगों की समझ से बाहर थीं

Aala Hazrat Imam Ahmed Raza Khan رضي الله عنه Faazil e Bareilly Sharif ki muqaddas zindagi in Hindi, Life of aalahazrat

अपनी ज़ात पर फ़तवाः
इन्सानी फ़ितरत की यह कमज़ोरी है कि वह अपने लिए हर मुमकिन आसानी का मतलाशी रहता है । गुंजाईश और रिआयत का पहलू तलाश करने में कसर उठा नहीं रखता लेकिन अल्लाह तआला के खास बन्दे न सिर्फ खुद को अहकामे शरा का पाबन्द ही बनाते हैं बल्कि वह रूख़्सत की जगह अज़ीमत और फ़तवा की जगह तकवा इख़्तियार करके मवाखज़े से बचने की हत्तल इमकान कोशिश करते हैं । इमाम अहले सुन्नत की अज़ीमत का हैरत अंगेज़ वाकिआ मुलाहज़ा फ़रमाइए । जब १३३६ हि . का माहे रमज़ान शरीफ़ , मई जून १६२१ ई ० में पड़ा और मुसलसल अलालत व जोफे फरावां के बाइस आला हज़रत ने अपने अन्दर इमसाल के मौसमे गर्मा में रोज़ा रखने की ताकत न पाई तो अपने हक में फतवा दिया कि पहाड़ पर सर्दी होती है , वहां रोजा रखना मुमिकन है , लिहाज़ा रोज़ा रखने के लिए वहां जाना इस्तिताअत की वजह से फ़र्ज़ हो गया फिर आप रोज़ा रखने के इरादे से कोहे भवाली ज़िला नैनिताल तशरीफ ले गए ।
दुनिया से बे रगबतीः
एक वह हज़रात हैं जो मुसलमानों के पेशवा कहलाने के मुद्दई हैं , लेकिन दुनिया कमाने की खातिर बाज़ ब्रिटिश गवर्नमेंट के ऐवाने हुकूमत के सामने सज्दा रेज़ तो दूसरे गांधवी बुत खाने पर , लेकिन इमाम अहले सुन्नत के खुलूस व लिल्लाहियत का अन्दाज़ा वह सईद हस्तियां कर सकती हैं जो खुद इन सिफ़ात से मुत्तसिफ़ हों । चुनांचे सैफुल इस्लाम देहलवी ने आला हज़रत अलैहिर्रहमा के बारे में लिखा है । ‘ मैं ने सौदागरी मुहल्ले के कई बुजुर्गों से सुना कि निज़ाम हैदराबाद दकन ने कई बार लिखा कि हुजूर कभी मेरे यहां तशरीफ़ लाकर मसनून फ़रमायें या मुझे ही न्याज़ का मौका इनायत फ़रमायें तो आप ( आला हज़रत ) ने जवाब दिया
कि मेरे पास अल्लाह तआला का इनायत फ़रमाया हुआ वक़्त सिर्फ उसी की इताअत के लिए है मैं आप की आओ भगत का वक़्त कहां से लाऊं ? ” आला हज़रत तो फिर आलाहज़रत हैं , आपके खलफे अकबर हज़रत हज्जतुल इस्लाम के बारे में मौसूफ ने यूं वज़ाहत फ़रमाई है ।
उनके साहबजादे मौलाना हामिद रज़ा खां रहमतुल्लाह अलैह जिन से मुझको चन्द दिन फैज़ हासिल करने का मौका मिला , बड़े हसीन व जमील , बड़े आलिम और वे इन्तिहा खुश अखलाक थे । उनकी ख़िदमत में भी निज़ाम हैदराबाद ने दारूल इफ्ता की निज़ामत की दरख्वास्त की और इस सिलसिला में काफ़ी दौलत का लालच दिलाया , तो आप ने फ़रमाया कि मैं जिस दरवाज़ए खुदाए करीम का फ़कीर हूं , मेरे लिए वही काफी है । ” इसी किस्म का वाकिआ नवाब रामपुर के साथ पेश आया ,
चुनांचे अल्लामा बिहारी मरहूम ने लिखा है कि : एक मर्तबा नवाब रामपुर नैनिताल जा रहे थे । स्पेशल बरैली शरीफ  . ”
पहुंचे तो हज़रत शाह मेहदी हसन मियां साहब ने अपने नाम से डेढ़ हजार के नोट रियासत के मदारूल मुहाम की मारिफ़त बतौरे नज्र स्टेशन से हुजूर की खिदमत में भेजे और वालिए रियासत की जानिब से मुस्तद्दई होते हैं कि मुलाकात का मौका दिया जाए ।
हुजूर को मदारूल मुहाम साहब के आने की ख़बर हुई तो अन्दर से दरवाज़ा की चौखट पर खड़े खड़े मदारूल मुहाम साहब ने फ़रमाया कि मियां को मेरा सलाम अर्ज़ कीजिएगा और यह कहिएगा , यह उल्टी नज्र कैसी ?
मुझे मियां की ख़िदमत में नज्र पेश करना चाहिए न कि मियां मुझे नज्र दें ।
यह डेढ़ हज़ार हों या जितने हों , वापस ले जाइए , फ़कीर का मकान न इस क़ाबिल कि किसी वालिए रियासत को बुला सकू और न मैं वालियाने रियासत के आदाब से वाकिफ कि खुद जा सकू ।
जनाब सैफुल इस्लाम ने इस सिलसिले में एक वाकिआ और नक्ल किया है जो यह है : ” नवाब हामिद अली खां साहब मरहूम के मुताल्लिक मालूम हुआ कि कई बार उन्होंने आला हज़रत को लिखा कि हुजूर रामपुर तशरीफ़ लायें तो मैं बहुत ही खुश हूंगा ।
अगर यह मुमिकन न हो तो मुझी को ज़ियारत का मौका दीजिए । आप ने जवाब में फरमाया कि चूंकि आप सहाबए किबार रिज़वान अलैहिम अजमईन के मुखालिफ़ शीओं के तरफ़दार और उनकी ताजिया दारी और मातम वगैरह की बिदअत में मुआविन हैं , लिहाज़ा मैं न आप को देखना जाइज़ समझता हूं न अपनी सूरत दिखाना ही पसंद करता हूं ।
अहले मुहल्ला पर असरः 
बाज़ हज़रात वह भी हैं जो आसमाने इल्म के नय्यरे ताबां होने के मुद्दई हैं लेकिन माहौल तो दरकिनार खुद उनके घर वाले गैर इस्लामी रंग में रंगे हुए नज़र आते हैं । इमाम अहले सुन्नत चूंकि सुन्नत के ज़बर्दस्त पैरूकार थे और दूसरे मुसलमानों को भी इसी रंग में रंगा हुआ देखना चाहते थे । आला हज़रत के मुहल्ले का रंग मुलाहज़ा होः एक अलामत तो उन की बुजुर्गी की यह बहुत ही रौशन थी कि मैं ( मुनव्वर हुसैन सैफुल इस्लाम साहब ) गालिबन सात बरस मुतवातिर आला हज़रत के मुहल्ला में रहा मगर कहीं से मुझको बाजे गाजे और शबे बरात वगैरह के दिन पटाखों की आवाज़ नहीं आई . न मैं ने कभी आठ नौ साल की बच्ची को बे पर्दा देखा ।
मुहल्ला में ऐसा मालूम होता कि सब रहने वाले मुत्तकी और निहायत ही पाबन्दे शरा हैं । छोटे छोटे बच्चों से माँ बहन की गाली नहीं सुनी ।

जब बच्चे कभी एक दूसरे से लड़ते तो हाथा पाई भी न करते , न गालियां ही देते , हां उनकी बड़ी से बड़ी गाली बेदीन , बद अकीदा , वहाबी , चकड़ालवी , देवबन्दी , गैर मुकल्लिद , नेचरी और नदवी वगैरह थी । शादी ब्याह , बच्चों की पैदाइश या खुशी के मौका पर भी घरों से लड़कियों या औरतों के गाने , ढोलक बजाने तक की आवाज़ नहीं सुनी ।
इसी तरह मौत के मौका पर भी मुहल्ले की औरतें उतनी ही आवाज़ से रोती होंगी जो दरवाज़े के बाहर न जा सके । गर्ज़ यह है कि सौदागरी मुहल्ले में किसी घर की शादी गमी की खबर लोगों की इत्तला देने पर ही होती थी । आतिश बाज़ी और ताश या दूसरे बेहूदा मशग़ले भी सौदागरी मुहल्ला में , मैंने नहीं देखे ।
” निगाहे वली में वह तासीर देखी
बदलती हज़ारों की तकदीर देखी
सलाम का जवाबः 
आज कल तो सलाम करने और जवाब देने में कितनी ही जिद्दतें पैदा हो चुकी हैं जिन का रात दिन मुशाहिदए आम हो रहा है । नुमाइशी और फर्शी सलाम का भी खूब ज़ोर है लेकिन चूंकि तजकिरा इमाम अहले सुन्नत का है लिहाज़ा यहां मस्नून सलाम के बारे में आप के बचपन का एक वाकिआ पेश किया जाता है । ” एक रोज़ मौलवी साहब मौसूफ हस्बे मामूल बच्चों को पढ़ा रहे थे कि एक बच्चे ने सलाम किया , मोलवी साहिब जवाब दियाः ” जीते रहो । इस पर हुजूर ( आला हज़रत ) ने अर्ज़ किया कि यह तो सलाम का जवाब न हुआ ,
व अलैकुमुस्सलाम कहना चाहिए था । मौलवी साहिब सुन कर बहुत खुश हुए और बहुत दुआयें दीं ।
 ” अहवत का इख़िज़यार करनाः 
शुरू अय्याम में आला हज़रत अलैहिर्रहमा को अक्सर आशोबे चश्म की शिकायत हो जाया करती थी । ऐसी हालत में जो पानी आंखों से बहता है वह ज़ाहिर मज़हब में कतअन नाकिसे वुजू नहीं है लेकिन बाज़ फुकहा ने चूंकि इस का एक गोना बर अक्स भी लिखा है , अगरचे वह दलाइल के ऐतबार से काबिले तस्लीम नहीं और हमारे अइम्मा का फतवा भी यही है
लेकिन तकवा का मकाम चूंकि फतवा से भी आगे है , लिहाजा इस सिलसिले में मुजद्दिद हाज़िरा अलैहिर्रहमा का अपना अमल मुलाहज़ा होः
एक बार आप की आंखें दुखने आ गई थीं । इस हाल में मस्जिद की हाज़री के वक्त मुतअद्दिद बार ऐसा होता कि कभी नमाज़ से कब्ल और कभी नमाज के बाद किसी शख्स को अपने करीब बुलाकर फरमाते । देखिए तो आंख के हल्का से बाहर पानी तो नहीं आया है वरना वुजू करके नमाज़ दुहरानी पड़ेगी ।
आख़री तहरीर
शाने खुदावन्दी और नामूसे मुस्तफवी के इस निगहबान की आखरी तहरीर हम्दे इलाही व दरूद पाक है । चुनांचे अल्लामा बदरूद्दीन अहमद ने इमामे अहले सुन्नत के बारे में यूं वज़ाहत फ़रमाई ” आप ने 25 / सफ़र 1340 हि . जुमा मुबारका को विसाल से दो घंटा सत्तरह मिनट पेशतर तजहीज़ व तकफ़ीन वगैरह से मुताल्लिक ज़रूरी वसाया शरीफ , जो चौदह अहम बातों पर मुशतमिल है , कलमबन्द कराए
और आखिर में बारह बजकर इक्कीस मिनट पर खुद दस्ते अकदस से हम्द व दरूद शरीफ के मन्दर्जा जैल कलेमात तहरीर फ़रमाए
। वल्लाहु शहीदुन वलहुल हम्दु व सल्लल्लाहु तआला व बारिक व सल्लिम अला शफीउल मुजनबीन व आलिहितैयबीन व सहबिहिल मुकर्रमीन व इमिही व हिज़बिही इलल अबदिल आबिदीन आमीन वल हम्दुलिल्लाहे रब्बिल आलमीन । “

असली और जाली हनफ़ी की पहचानः
बुजुर्गाने दीन ने अपने अपने दौर में उन ज़मानों की मख्सूस गुमराहियों के पेशे नज़र , कलिमा गोयों में से अहले हक व अहले बातिल में तमीज़ करने के मुख़्तलिफ तरीके बताए । ज़मानए हाल के मुब्तदेईन में से अक्सर तो उनके मख्सूस अकाइद व नज़रियात और अकवाल व अफआल की वजह से पहचानलिए जाते हैं

लेकिन जाली हंफ़ियों का जाल इतना पुर फ़रेब और गैर महसूस है कि अवामुन्नास उसको समझने से कासिर होकर रह गए हैं और यही वजह है कि उनके ज़ाहिरी तकद्दुस , दीन के नाम से भाग दौड़ , दावए हन्फ़ीयत , अहनाफ़ की मुसल्लमा किताबों से इस्तिनाद , अहले सुन्नत के अकाबिर की बुजुर्गी को मुसल्लम रखने और पीरी मुरीदी तक के न सिर्फ काइल बल्कि इस पर आमिल नज़र आने की बिना पर अवाम यह सोचने पर मजबूर हो जाते हैं
कि आख़िर यह हन्फी क्यों नहीं और इन के अहले सुन्नत व जमाअत में होने से क्या चीज़ माने है ? लेकिन उन बेचारों को क्या मालूम कि इतने करीब होकर मुसलमानों के दीन व ईमान को बरबाद करने का यह कारोबार कितना पुर फ़रेब है ?

Aala Hazrat Imam Ahmed Raza Khan رضي الله عنه Faazil e Bareilly Sharif ki muqaddas zindagi in Hindi, Life of aalahazrat

इस्लाम की असल बुनियाद अकाइद पर है और अकाइद में तौहीद व रिसालत के सही तसव्वुरात को मर्कज़ी पोजीशन हासिल है लेकिन इन हज़रात ने तौहीद व रिसालत की हुदूद ऐसी मुतअय्यन की हैं जो इस्लाम के बताए हुए तसव्वुरात से कोई मुताबिकत नहीं रखतीं ।
यही वजह है कि इन बांके मुवहहिदों को सारी उम्मते मुहम्मदिया शिर्क के समुन्द्र में डूबी हुई नज़र आती है । इन की तौहीद जुल खुवैसरा , खवारिज , दाऊद ज़ाहिरी , इबने हज़्म , इबने तैमिया , मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब नज्दी और इस्माईल देहलवी की बताई हुई बल्कि गढ़ी हुई तौहीद तो हो सकती है
लेकिन इस्लामी तौहीद हरगिज़ नहीं हो सकती । इन मुवहहिदों की पहचान का उलमाए अहले सुन्नत ने आसान तरीन तरीका बताया है जो हस्बे ज़ैल है ।
जब हज़रत मौलाना ( अल्लामा कादिर बख़्श सहसरामी मरहूम )
बैठे तो किसी ने पूछा कि हज़रत ! सुन्नी और वहाबी की क्या पहचान है ?
ऐसी बात बताइए जिस के ज़रिए हम लोग भी सुन्नी और वहाबी को पहचान सकें । कोई बड़ी इल्मी बात न हो ।
मौलाना सहसरामी ने फरमाया कि ऐसा आसान , उमदा और खरा कायदा आप लोगों को बता देता हूं कि उस से अच्छा मिलना मुशकिल है । आप लोग जब किसी के बारे में मालूम करना चाहें कि सुन्नी है या वहाबी ? तो उसके सामने
फुज्जार का कोई एक भी ऐसा फिर्का नहीं है जिसके रद में आला . आला हज़रत शाह अहमद रजा खां बरैलवी का तज़किरा छेड़ दीजिए और उसके चेहरे को बगौर देखिए , अगर चहरे पर बशाशत और खुशी के आसार दिखाई पड़ें तो समझ लीजिए सुन्नी है
और अगर चेहरे पर पज़मुर्दगी और कदूरत देखिए तो समझ लीजिए कि वहाबी है । और अगर वहाबी नहीं जब भी उस में किसी किस्म की बेदीनी ज़रूर है । ” १ यह क्यों न हो ? जबकि मुजद्दिद की आमद का मकसद ही दीन में ताज़गी पैदा करना और हक व बातिल को वाजेह कर देना है । उसी ने दीन की तजदीद का झण्डा उठाया था निशां हक्कानियत का जिस को मालिक ने बनाया था अगर चौथी शिक़ का मुलाहज़ा किया जाए कि इमाम अहमद रज़ा खां बरेलवी को महबूब के दुशमनों , गुस्ताखों और मुन्तदेईने ज़माना से कितनी नफ़रत थी तो इसका वाज़ेह सुबूत आप का तजदीदी कारनामा है ।
अगर सरवरे कौनो मकां सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के गुस्ताखों और आप के लाए हुए दीन में कतर ब्योंत करके गुमराहियों का बीज बोने वालों से आप किसी किस्म की रिआयत के रवादार होते तो आप के मुतल्लिक मुब्तदेईन की सफों में यह तूफ़ाने बद तमीज़ी क्यों पाया जाता जो आज भी पूरी शिद्दत से तलातुम खेज़ है । आप ने मुक़द्दस शजरे इस्लाम में गैर इस्लामी अकायद व नज़रियात की पेवन्द कारी करने वालों को टोका , समझाया बुझाया , खौफे खुदा व ख़तरए रोजे जज़ा याद दिलाया , जब वह किसी तरह बाज़ न आए तो तने तन्हा सबका मुहासबा किया , तकरीर व तहरीर के हर मैदान में उन्हें ललकारा , हर मकाम पर उन्हें साकित व मबहूत किया , बातिल को मगलूब और हक को गालिब कर दिखाया
और चिरागे मुस्तफवी को अपनी फूंकों से बुझाने की खातिर जिस रंग में भी बूलहबी आई अप ने उसके परखच्चे उड़ा कर रख दिए । अल्लामा बदरूद्दीन अहमद लिखते हैं । आज दुनिया में मुशरिकीन व कुफ्फार , मुरतदीने अशरार , गुमराहाने हज़रत की मुतअद्दिद तस्नीफ़ात न हो .. ” बद मज़हबों की जिस कदर फितनागर पार्टियां हैं
उन सब के खुद साख्ता उसूल और बातिल ऐतकादात को उन्हीं के मुसल्लमात उन्हीं के गाड़े हुए कवाइद से , इस तरह तोड़ फोड़ कर उनके धुर्वे उड़ा दिए हैं कि तलाश व जुस्तजू के बाद उनका कोई एक ज़र्रह सलामत नहीं मिलता । ” महबूबे परवरदिगार सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की शान में जिन लोगों ने आलिमाने दीन का लिबादा ओढ़ कर ऐसे ऐसे गुज़रे और ना – ज़ेबा अल्फाज़ इस्तेमाल किए जिन की कभी खुले काफिरों , गैर मुस्लिमों को भी जुरअत नहीं हुई थी तो इस अलमबरदारे शाने मुस्तफ़वी ने अज़ राहे खैर ख्वाही मुसलमानों को यूं समझाया और इन लफज़ों में उन उलमा के शर से बचने की तलकीन की : “ लिल्लाह इन्साफ़ , अगर कोई तुम्हारे माँ बाप उस्ताद पीर को गालियां दे और न सिर्फ ज़बानी बल्कि लिख लिख कर छापे , शाया करे , क्या तुम उसका साथ दोगे ? या उसकी बात बनाने को तावीलें गढ़ोगे ?
या उसके बकने से बे परवाही करके उस से बदस्तूर साफ़ रहोगे ? नहीं नहीं , अगर तुम में ईमानी गैरत , इन्सानी हमीयत , माँ बाप की इज्जत हुर्मत अज़मत मोहब्बत का नाम निशान भी लगा रह गया है तो उस बद गो , दुशनामी की सूरत से नफ़रत करोगे , उसके साया से दूर भागोगे , उसका नाम सुन कर गैज़ लाओगे , जो उस के लिए बनावटें गढ़े उसके भी दुशमन हो जाओगे ।
फिर खुदा के लिए माँ बाप को एक पल्ले में रखो और अल्लाह वाहिद कहहार व मुहम्मद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की इज्जत व अज़मत को दूसरे पल्ले में ।

अगर मुसलमान हो , तो माँ बाप की इज्जत को अल्लाह व रसूल की इज़्ज़त से कुछ निस्बत न मानोगे । माँ बाप की मोहब्बत व हिमायत को अल्लाह व रसूल की मोहब्बत व खिदमत के आगे नाचीज़ जानोगे ।
तो वाजिब वाजिब वाजिब , लाख लाख वाजिब से बढ़कर वाजिब कि उनके बद – गो से वह नफ़रत दूरी व गैज़ जुदाई हो कि माँ बाप के दुशनाम दहिन्दा के साथ उसका हज़ारवां हिस्सा न हो । ” इस खैर ख्वाहे इस्लाम व मुसलिमीन ने भोले भाले मुसलमानों को उन लोगों के शर से बचने , उन उलमा से दूर व नुफूर रहने की इन लफ़्ज़ों में तलकीन फ़रमाई

Aala Hazrat Imam Ahmed Raza Khan رضي الله عنه Faazil e Bareilly Sharif ki muqaddas zindagi in Hindi, Life of aalahazrat

जो अल्लाह और रसूल की जनाब में गुस्ताख़ थे । अभी कुरआन व हदीस इरशाद फरमा चुके कि ईमान के हकीकी व वाकई होने को दो बातें ज़रूर हैं । मुहम्मद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की ताज़ीम , मुहम्मद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की मोहब्बत को तमाम जहान पर तक़दीम । तो उसकी आजमाईश का यह सरीह तरीका है
कि तुम को जिन लोगों से कैसी ही ताज़ीम , कितनी ही अकीदत , कितनी ही दोस्ती , कैसी ही मोहब्बत का इलाका हो , जैसे तुम्हारे बाप , तुम्हारे उस्ताद , तुम्हारे पीर , तुम्हारी औलाद , तुम्हारे भाई . तुम्हारे अहबाब , तुम्हारे बड़े , तुम्हारे अस्हाब , तुम्हारे मौलवी . तुम्हारे हाफ़िज़ , तुम्हारे मुफ्ती , तुम्हारे वाइज़ वगैरह वगैरह कसे बाशद , जब वह मुहम्मद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की शाने अकदस में गुस्ताखी करे असलन तुम्हारे कल्ब में उन की अज़मत , उनकी मोहब्बत का नाम व निशान न रहे ।
फौरन उन से अलग हो जाओ , दूध से मख्खी निकाल कर फेंक दो । उनकी सूरत , उनके नाम से नफ़रत खाओ , फिर न तुम अपने रिशते इलाके . दोस्ती , उल्फ़त का पास करो , न उनकी मौलवीयत मशीख़त बुजुर्गी फजीलत को ख़तरे में लाओ कि आखिर यह जो कुछ था ,
मुहम्मद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ही की गुलामी की बिना पर था , जब यह शख्स उन्हीं की शान में गुस्ताख़ हुआ , फिर हमें उस से क्या इलाका रहा ?
उसके जुब्बे अमामे पर क्या जायें ?
क्या बहुतेरे यहूदी जुब्बे नहीं पहनते ,अमाम नहीं बांधते  उसके नाम के इल्म व ज़ाहिरी फज्ल को लेकर क्या करें क्या बहुत पादरी , बकसरत फलसफी बड़े बड़े उलूम व फुनून नहीं जानते ?

और अगर यह नहीं बल्कि मुहम्मद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम के मुकाबिल तुम ने उस की बात बनानी चाही . उसने हुजूर से गुस्ताखी की और तुम ने उस से दोस्ती निबाही , या उसे हर बुरे से बद तर बुरा न जाना , या उसे बुरा कहने पर बुरा माना , या इसी कद्र कि तुम ने इस अम्र में बे परवाई मनाई या तुम्हारे दिल में उसकी तरफ़ से सख़्त नफ़रत न आई , तो लिल्लाह , अब तुम्हीं इन्साफ़ कर लो कि तुम ईमान के इम्तिहान में कहां पास हुए ?

कुरआन व हदीस ने जिस पर हुसूले ईमान का मदार रखा था उस से कितनी दूर निकल गए ?
मुसलमानो ! क्या जिस के दिल में मुहम्मद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की ताज़ीम होगी वह उनके बद गो की वकअत कर सकेगा ? अगरचे उसका पीर या उस्ताद ही क्यों न हो । क्या जिसे मुहम्मद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम तमाम जहान से ज़्यादा प्यारे होंगे वह उनके गुस्ताख़ से फौरन सख्त शदीद नफ़रत न करेगा , अगरचे उसका दोस्त या बिरादर या पिसर ही क्यों न हो । ” कुरआनी आयात पेश करके . खुदा व रसूल ( जल्ला जलालहू व सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम ) की अज़मत का तसव्वुर दिलाकर , ईमान के तकाज़े समझा कर , गुस्ताखों के बारे में मुसलमानों से मजीद यूं फहमाईश की जाती है ।
इस आयते करीमा में साफ़ फ़रमा दिया कि जो अल्लाह या रसूल की जनाब में गुस्ताखी करे , मुसलमान उस से दोस्ती न करेगा , जिस का सरीह मफ़ाद हुआ कि जो उस से दोस्ती करे वह मुसलमान न होगा ।
फिर इस हुक्म का कतअन आम होना बित्तसरीह इरशाद फ़रमाया कि बाप बेटे भाई अज़ीज़ सब को गिनाया यानी कोई कैसा ही तुम्हारे ज़अम में मुअज्जम या कैसा ही तुम्हें बित्तबा महबूब हो , ईमान है तो गुस्ताखी के बाद उस से मोहब्बत नहीं रख सकते ,
उसकी वक़अत नहीं मान सकते , वरना मुसलमान न रहोगे इमाम अहले सुन्नत , मुजद्दिदे दीन व मिल्लत की आखरी महफिल है ।
सफ़रे आख़िरत की तैयारी हो रही है । अकीदतमंद मुल्क के कोने कोने से अयादत के लिए पहुंच रहे हैं इस मौका पर भी मुसलमानों को ज़ियाबुन फी सियाबिन का बहरूप भरने वालों , रहबरों के रूप में मुसलमानों को गुमराह करने वालों से यूं आखरी बार ख़बरदार किया जाता है । .
ये लोगो ! तुम प्यारे मुस्तफा सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की भोली भेड़े हो , और भेड़िये तुम्हारे चारों तरफ़ हैं । वह चाहते हैं कि तुम्हें बहकायें , तुम्हें फ़ितना में डाल दें , तुम्हें अपने साथ जहन्नम में ले जायें । उन से बचो और दूर भागो । देवबन्दी , राफ़िज़ी , नेचरी , कादियानी , चकड़ालवी , यह सब फिर्के भेड़िये हैं ,
तुम्हारे ईमान की ताक में हैं , इन के हमलों से ईमान को बचाओ । हुजूर सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम रब्बुल इज़्ज़त जल्ला जलालहू के नूर हैं , हुजूर से सहाबए किराम रौशन हुए . सहाबा किराम से ताबईने इज़ाम रौशन हुए . ताबईन से तबा ताबई रौशन हुए . उनसे अइम्मए मुजतहिदीन रौशन हुए . उन से हम रौशन हुए । अब हम तुम से कहते हैं , यह नूर हम से ले लो ।
हमें इस की ज़रूरत है , कि तुम हम से रौशन हो । वह नूर यह है कि अल्लाह व रसूल की सच्ची मोहब्बत , उनकी ताज़ीम और उनके दोस्तों की खिदमत और उनकी तकरीम और उनके दुशमनों से सच्ची अदावत जिस से अल्लाह व रसूल की शान में अदना तौहीन पाओ , फिर वह तुम्हारा कैसा ही प्यारा क्यों न हो , फौरन उस से जुदा हो जाओ , जिस को बारगाहे रिसालत में ज़रा भी गुस्ताख़ देखो , फिर वह तुम्हारा कैसा ही बुजुर्ग मुअज्जम क्यों न हो अपने अन्दर से उसे दूध से मख्खी की तरह निकाल कर फेंक दो । मैं पौने चौदह बरस की उम्र से यही बताता रहा और इस वक़्त फिर यही अर्ज करता हूं ,
अल्लाह तआला ज़रूर अपने दीन की हिमायत के लिए किसी बन्दे को खड़ा कर देगा मगर नहीं मालूम मेरे बाद जो आए कैसा हो और तुम्हें क्या बताये ? इस लिए इन बातों को खूब सुन लो ,हुज्जतुल्लाह काइम हो चुकी । अब मैं कब्र से उठ कर तुम्हारे पास बताने न आऊंगा ।
जिसने इसे सुना और माना , कयामत के दिन उसके लिए नूर व नजात है और जिस ने न माना , उसके लिए जुल्मत व हलाकत है । ” महबूबे परवरदिगार , आकाए नामदार , शफीउल मुज़न्नबीन , रहमतुल लिलआलमीन सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की शान व अज़मत का यह मुहाफ़िज़ , यह दरे अकदस का सच्चा दरबान , अपने आका व मौला सल्लल्लाहु तआला अलैहि वसल्लम की गुलामी पर इतना नाजां था कि इस दर की गुलामी पर तख़्ते जम और दीहीमे कैसर को निसार कर रहा था ,
इस गुलामी को वह किसी बड़े से बड़े दुनियावी ऐजाज़ के बदले छोड़ने पर रज़ा मन्द नहीं था । इस दर की गुलामी तो बड़ी बात है वह महबूब के दीवार के साये में खड़ा होना और दरे अकदस की ख़ाक को ताज व तख़्त से हज़ार दर्जा बेहतर समझता और अपने खालिक व मालिक की बारगाह में यूं दुआयें मांगता था ।
सायए दीवार व ख़ाके दर हो या रब और रज़ा ख्वाहिशे दीहीमे कैसर , शौके तख़्ते जम नहीं

Aala Hazrat Imam Ahmed Raza Khan رضي الله عنه Faazil e Bareilly Sharif ki muqaddas zindagi in Hindi, Life of aalahazrat
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