रात का समय था। सारा मदीना शहर सोया पड़ा था। उसी समय हजरत उमर शहर से बाहर निकले। तीन मील जाने के बाद एक औरत दिखाई दी।
वह कुछ पका रही थी। पास ही दो तीन बच्चे रो रहे थे। हजरत उमर ने उस औरत से पूछा, “ये बच्चे क्यों रो रहे है?” औरत ने जबाब दिया, “भूखे हैं। कई दिन से खाना नहीं मिला। आज भी कुछ नहीं है। खाली हांडी में पानी डाल कर पका रही हूं।
हजरत ने पूछा, “ऐसा क्यों कर रही हो?”
औरत ने जवाब दिया, “बच्चों का मन बहलाने के लिए।”
हजरत उमर तड़प उठे। उसी समय वापस लौटे। खजाने से घी, आटा और खजूरें ली। नौकर से बोले, “इन्हें मेरी पीठ पर बांध दो।” नौकरी ने कहा, “यह आप क्या कर रहे हैं? मैं ले चलता हूं।” हजरत उमर ने जबाब दिया, “कयामत में मेरा र्बोझ तुम नहीं उठाओगे।”
सब चीजें चह खुद लाद कर ले चले। उसी औरत के पास पहुंचे। उसने ये चीजें देखी तो बहुत खुश हुई। जल्दी-जल्दी आटा गूंथा। हांडीं चढ़ाई। हजरत उमर चूल्हा फूंकने लगे। खाना तैयार हुआ। बच्चों ने पेट भर कर खाया। खाकर उछलने कूदने लगे। हजरत उमर देखते थे, खूब खुश होते थे। मां भी बहुत खुश थी। बार-बार दुआएं दे रही थी। कहती थी, “खलीफा तुमको होना चाहिए। उमर इस काबिल नहीं है।”
बेचारी गरीब मां! उसे कौन बताता कि वह किस से बातें कर रही है।
एक रात उमर फिर ऐसे ही घूम रहे थे। देखा एक बददू अपने खेमे के बाहर बैठा हुआ है। वह भी उसके पास जा बैठे। इधर-उधर की बातें होने लगी। बीच-बीच में कहीं से रोने की आवाज आ रही थी। पता लाग कि खेमे के भीतर कोई रो रहा है। पूछा, “कौन रो रहा है?”
बददू ने जबाब दिया, “मेरी बीबी।”
“क्या बात है?”
“बच्चा होनेवाला है।”
“क्या वह अकेली है।”
“हां।”
हजरत उमर घर लौटे। अपनी बीवी को साथ लिया। फिर वही आये। रोने की आवाज उसी तरह आ रही थी। बददॅ से बोले, “यह मेरी बीवी है। तुम कहो तो यह भीतर चली जाय।”
नेकी और पूछ-पूछ! बददू बहुत खुश हुआ। हजरत उमर की बीवी भीतर चली गई। कुछ देर बाद बच्चा पैदा हुआ। भीतर से ही उनकी बीवी ने पुकारा, “अमीरुल मोमनीन, अपने साथी को बधाई दो।”
बददू चौंक पड़ा “क्या कहा, अमीरुल मोमनीन! क्या यह मोमीनों के नेता, खलीफा, हजरत उमर है?”
वह हाथ जोड़ने लगा। हजरत उमर बोले, “नहीं कोई बात नहीं। कल मेरे पास आना। बच्चे के लिए वजीफा बांध दूंगा।
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